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परिच्छेद]
(३)
यमज-सहोदरा


कलकत्ते रह कर मैने एक लाख रुपए कुमार्ग में नष्ट किए और सवा लाख का मुकद्दमा चौपट किया!

निदान, मैने होश में आकर व्यारिष्टर अमरनाथ घोष को उस मुकद्दमे की पैरवी के लिये बिलायत भेजा और अपने सदाशय मुनीम सत्यचरण मित्र के ऊपर ज़िमीदारी के सारे बोझ को डाल कर अपना जी बहलाने के लिये मैं देशभ्रमण को निकला। क्योंकि दुश्चारिणी विलासिनी ने मेरे हृदय-क्षेत्र में वह आग लगाई थी कि जिसकी ज्वाला से मैं ऐसा भुना जाता था कि घर पर एक मास से अधिक किसी भांति न ठहर सका।

निदान, सन् १८९८ साल के जेठ महीने के प्रारंभ में मैं बीच के कई नगरों में घूमता हुआ नैनीताल जा पहुंचा। उस समय बंगदेश भयानक प्लेग के भयंकर अत्याचार से नष्टप्राय हो रहा था, पर नैनीताल में दुष्ट प्लेग का कहीं नाम भी न था और सरदी के कारण जेठ की गरमी का भी कहीं पता न था।

नैनीताल आकर पहिले तो मेरा जी उचाट सा होगया, क्योंकि वहां पर मेरा ऐसा कोई परिचित न था, जिससे घड़ी भर जी बहलाया जाता! किन्तु कुछ दिनों के बाद मैने अपने मन के अनुसार एक मित्र पाया, जिसके पाने से मुझे कैसा आशातीत लाभ हुआ, आगे चल कर मैं उसी बात का उल्लेख करूंगा।

मैने जिस मित्र को पाया, वे सिक्ख-संप्रदार में दीक्षित थे, पटियाला राज्य में उनकी विस्तृत ज़मीदारी थी और नाम उनका राय निहालसिंह था।

निहालसिंह की अवस्था मेरे बराबर कीही थी और वे उस समय, जबकि मैं नैनीताल पहुंचा था, नैनीताल में आकर ठहरे हुए थे। वे "सीमान्त संप्राम" के लिये महाराज पटियाले के साथ सेनापति बन कर गए थे, और मेरे जाने के कुछ ही दिन पहिले वे नैनीताल में आ कर ठहरे हुए थे।

किन्तु उस असिजीवी सिक्खवीर के साथ मुझ जैसे मसिजीवी भीरु बंगाली की, जो कि दोनो परस्पर भिन्न प्रकृति के थे, क्योंकर मित्रता हुई, इसके लिखने में मैं नितान्त असमर्थ हूं।

मैं जब तक वहां था, प्रतिदिन ही निहालसिंह के साथ तीसरे पहर, पहाड़ पर घूमने के लिये निकलता। उस समय हमदोंनो की विभिन्न