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परिच्छेद]
(४३)
यमज-सहोदरा


छठवां परिच्छेद

मैं थोड़ी ही देर तक वहां था, इतनी ही देर में मैंने यह सब देखा फिर पहरेवालों के साथ मैं उसी खोह में लौट आया और जानवरों की तरह उसमें बंद कर दिया गया।

तीन दिन और तीन रात मुझे उसी भयानक कारागारही में बीते। हाय, ये तीन दिन बड़ेही कष्ट से बीते। कहां तो स्वाधीनता, शत्रुओं के खोजने का महाउत्साह, पर्वतस्थली में भ्रमण, पहाड़तोड़ तोपों की गंभीर ध्वनि, श्रेणीवद्ध सौ सौ बंदूकों की बारंबार आवाज़े, तीखी तल्वारों की झनझनाहट, और बीरताव्यंजक प्रतिक्षण नवीनातिनवीन उत्साह; और कहां इस अन्धकारपूर्ण, भयानक पहाड़ी बिल में पशुओं की भांति अकेले समय विताना! हा! उस समय मैंने मनही सन यह समझ लिया था कि भयानक मृत्यु जल्लाद बनकर मेरी परमायु के मस्तक पर झुठाराघात कर रही है। हा! यह कौन जानता था कि मुझे अकालही में दुराचारी अफरीदियों के हाथ पशु की मौत मरना पडेगा, मेरी भरीजवानी इस प्रकार मिट्टी में मिल जायगी, और मेरे सार मनोरथ बिना पूरे हुए ही रह जायंगे! ऐसी मौत से में नहीं मरना चाहता था, पर उस समय मेरा चाराही क्या था! यदि हाथ में तल्वार हो और सामने लड़कर मरना पड़े तो उस मृत्यु को मैं बड़े सुख की मृत्यु समझता हूं, परन्तु उस मृत्यु को स्मरण कर मेरा हृदय रहरह कर कांप उठता था।

ये तीन दिन मैंने तीन युग के समान काटे, क्योंकि इन तीन दिनों में एक दिन भी सुन्दरी हमीदा के दर्शन मुझे नहीं हुए थे। वह क्यों न सुझसे मिली, इसका कारण मुझे पीछे विदित हुआ था कि निज पिता की कड़ाई के कारण वह मेरे पास नहीं आसकी थी, परन्तु इस बात पर मुझे पूरा विश्वास था कि इस भयानक शत्रुपुरी में सिवा उसके मेरी भलाई चाहनेवाला और कोई नहीं है। किन्तु एक निस्सहाया अफरीदी वाला हज़ारों बैरियों की तल्वार से मुझे क्यों कर बचा सकेगी, यह चिन्ता मुझे और भी पागल किए देती थी। किन्तु मेरे प्राण बचने का एक मात्र उपाय था,-धर्म त्याग; अर्थात अपने पवित्र सिक्ख धर्म को छोड़ कर मुसलमानों के काल्पत