पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/४३

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परिच्छेद]
(४१)
यमज-सहोदरा


दगाबाज़ और एहसान-फ़रामोश भी है।

"प्यारे वालिद! इसी बहादुर नौजवान ने मेरी आबरू और जान के साथही साथ इस कमीने अबदुल की भी जान उन कंबख्त गोखों के हाथ से बचाई, जिसके एवज़ में इसने अपनी खुदगरज़ी और कमीने पन के बाइस इस बेगुनाह बहादुर को चोरी की इल्लत में गिरफ्तार करके सज़ा दिलवाने के लिये आपके रूबरू पेश किया है। मैं चाहती हूं कि अबदुल की शरारतों पर इन्साफ़ किया जाय और यह बहादुर जवान इज्ज़त के साथ अफ़रीदी सिवाने के बाहर पहुंचा दिया जाय। अगर अफ़रीदियों के खिलाफ़ तल्वार उठाने का जुर्म इस बहादुर शख्स पर लगाया जाय तो उसका निबटारा जंग के मैदान में किया जा सकता है। इसलिये मैं चाहती हूं कि----"

हमीदा और भी न जाने क्या क्या कहती, पर अफरीदी सरदार मेहरखां मारे क्रोध के बीचही में 'हुंकार' कर उठा और अपने तख्त पर खड़ा हो, बड़े कर्कश स्वर से कहने लगा,__

बेबकूफ़ लड़की! तूने क्या अपने दिल में यही समझ रखा है कि अफरीदी सरदार मेहरखां एक पागल लड़की के कहने मुताबिक काम करेगा! बस, मैंने सब बातें समझ लीं, अब तू चुप रह; क्योंकि अब मैं तेरी कोई बात सुनना नहीं चाहता। हमारे मुल्क के दुश्मन और अंगरेजों के एक गुलाम काफ़िर को तूने अपनी बेशकीमत तख्ती अपनी मुहब्बत की निशानी में दी: इस भरे दरबार में आकर इस बात के ज़ाहिर करने में, अफसोस है कि शर्म तेरी दामनगीर न हुई और हया से हाथ धो कर तूने अपने साथही मेरी भी शान में फर्क डाला और तू अपने इस काफ़िर आशिक के बचाव के लिये मुझसे सिफारिश करती है? आह! मैंने इस बात का ख्वाब भी नहीं देखा था कि अफरीदी कौम की-ज्यादातर खास मेरी लड़की की शर्मनाक कार्रवाई होगी! सुन बेवकूफ़ हमीदा! तू हर्गिज़ ऐसा न समझ कि मैं तेरे इस काफ़िर आशिक को छोड़ दूंगा और यह बदलात यहांसे लौट कर मेरे मुल्क में अंगरेज़ी झंडा गाड़ने का मौका पाएगा। बस जो काफिर, अफरीदी सरदार की नासमझ लड़की के दिल को लुभाना जाता है, उसे कैसी सज़ा देनी चाहिए, इस पर मैं बखूबी गौर कर चुका हूँ। लेकिन खैर, अगर यह तेरा आशिक कैदी एक एकरार करे तो इसकी जान बख्शी जासकती है। और यह बात यह है कि अगर यह काफिर