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[पंचवां
याक़ूतीतख़्ती


पांचवां परिच्छेद

प्रातःकाल पहरेवाले की आवाज़ से मेरी तंद्रा दूर हुई और उससे मैंने सुना कि मुझे दरबार में हाज़िर करने को सरदार ने हुक्म दिया है। अतएव मैं शीघ्रता से उठा और गुफा के बाहर आकर आवश्यक कामों से छुट्टी पा, सिपाहियों के घेरे में दरबार की ओर चला। उस समय दिन कुछ आधिक चढ़ आया था, पर आकाश में कुहरा इतना छाया हुआ था कि सूर्य भगवान का दर्शन दुर्लभ था।

अस्तु, मैं अंतर्यामी बिधाता को प्रणाम कर दरवार की ओर चला और मन ही मन परमेश्वर से यही प्रार्थना करने लगा कि जिसमें वह छीनदयालु मेरे हृदय में ऐसा बल दे कि जिसके कारण मैं इन असम्य अफ़रीदियों के आगे अपने सिक्ख नाम का गौरव रख सकूँ।

दरबार गृह कैसा था, इसकी सूचना मैं पहिले दे आया हूं। सो उसी बारहदी में मैं पहुंचाया गया और वहां जाकर मैंने देखा कि दरबार गृह के मध्य में एक ऊंचे सिंहासन पर अफरीदी सर्दार मेहरखा बैठा है और उसके अगल बगल अदब के साथ झुके हुए अस्सी दरबारी अमीर ज़मीन में, फर्श पर बैठे हुए हैं।

सदार मेहरखां का बयस, मेरे अनुमान से पचास के लगभग होगा। उसकी देह लंबी और जोरावर, चेहरा रोबीला और शरीर का रंग गोरा था। उसके सिंहासन के पीछे बीस सिपाही नंगी तल्वार लिए खड़े थे और दरबार गृह के सामने, मैदान में पचास सवार खड़े थे।

निदान, मैं जब सरदार के सामने जाकर खड़ा हुआ तो मेरे पीछे बारह अफ़रीदी सिपाही, हाथों में भरी हुई बंदूकें लेकर खड़े हुए कि जिसमें सरदार के जरासा इशारा पातेही वे मेरी खोपड़ी उड़ादें। अस्तु, परन्तु मैं बिलकुल निडर हो, तन कर वीरपुरुष की भांति सरदार के सामने खड़ा हुआ। उस समय दरबार में इतना सन्नाटा छाया हुआ था कि यदि वहां पर एक सुई भी गिरती तो उसका भी शब्द स्पष्ट सुनाई देता।

मेरे खड़े होने के कई मिनट बाद, उससन्नाटे को तोड़कर सरदार मेहर खांने मेरी ओर धूर कर गंभीर शब्दों में कहा,-"अय नौजवान!