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परिच्छेद]
(३१)
यमज-सहोदरा


यह सुनकर हमीदा फड़क उठी और उसने हंसकर कहा,-"प्यारे दोस्त! तुम्हारी दिलेरी और कदरदानी की बात सुन कर मैं निहायत खुश हुई। बाकई, मैने अपनी मुहब्बत की निशानी (वह तख्ती) किसी एहसानफरामोश नालायक को नहीं दी थी। लेकिन, दोस्त! यह अच्छा हुआ कि इस वक्त ऐसे खतरे के वक्त तख्ती तुम्हारे पास से मेरे पास चली आई। बस, कल जब दरबार में तुम चोरी के कसूर से बरी होकर जाने लगोगे तो यह तख्ती मैं फिर तुम्हें पहिनाकर बिदा करूंगी। असोस! काफ़िर, बदजात, झुठे, बेईमान, हरामजादे, खुदगरज, एहसानफरामोश और पाजी अबदुल ने जिस गरज़ से तुम्हे इतना परीशान किया है, उस कंबख्त की यह आ ताकयामत हर्गिज पूरी न होगी, क्योंकि जैसी बदज़ाती उस बेईमान अबदुल ने की है, अगर सुलतान-ई-रूम भी वैसी हर्कत करके हमीदा के दिलपर कबज़ा किया चाहेतो यह (हमीदा) उसपर भी कभी न थूकेगी। क्योंकि मैं जितनी कदर बहादुरी और सिपहगरी की करती हूं बेईमानी, खुदगरजी और एहसानलरामोशी से उतनी ही नारत भी करती हूं। बस, कल तुम कह देना कि मैंने तख्ती नहीं चुराई।"

मैंने कहा,-"हां, तो मैं अवश्य कहूंगा, किन्तु मैं तुमसे उस तख्ती के पाने और उस सिपाही के दिखलाने से इनकार कदापि न करूंगा।"

हमीदा,-(घबरा कर) "आह! तब तो तुम सब मिट्टी कर दोगे इसलिये मस्लहत यही है कि तुम उस तख्ती के पाने या उस सिपाही को देनेसे बिल्कुल इनकार करो।"

मैंने कहा,-"हमीदा! हाय, यह तुम्हारे जैसी बोरनारी के मुंह से यह मैंने क्या सुना! हाय, इस तुच्छ प्राण के बचाने के लिये तुम मुझे झूठी हलफ़ उठाने की सिक्षा देतीहो! किन्तु सुन्दरी! तुम निश्चय जानो कि सिक्खवीर जितना झूठ से डरते हैं उतना मृत्यु से कदापि नहीं डरते, वरन उसे महातुच्छ समझते हैं।"

मेरी यह बात सुन कर हमीदा मारे खुशी के उछल पड़ी और कहने लगी,-"जानिमन सलामत! ऐसा तुम हर्गिज़ मत समझना कि हमीदा दिलकी कमज़ोर है या यह तुम्हें झूठ बोलने के लिये मज़बूर किया चाहती है। नहीं, ऐसी बात कभी नहीं है। अजी साहब! मैं तो सिर्फ तुम्हारे दिल का इम्तहान ले रही थी,। ऐसी हालत में अगर तुम मेरी यह बात मान लेते तो बेशक तुम मेरी नज़रों से गिरजाते लेकिन ऐसा