हमीदा या अबदुल का इस कष्ट की ओर कुछ ध्यानही न था मानो उनके लिये कुछ था ही नहीं। तुम सच जानो उस अफरीदी युवती की कष्टसहिष्णता के आगे सिक्ख होकर भी मैने हार मानी!"
मैने हंसकर कहा,-"निहालसिंह। यह तो बड़े आनंद की बात तुमने सुनाई! क्योंकि स्त्री पर, विशेष कर युवती स्त्री पर विजय पाने की इच्छा करना तो कापुरुषों का काम है। क्योंकि वीर पुरुष तो सदा स्त्रियों से हार मानने मेंही अपना बड़ा धर्ग समझते हैं।"
निहालसिंह इस बक्रोक्ति का कुछ उत्तर न देकर कहने लगे," निदान, आधीरात तक चलने के बाद हमीदा एक पहाड़ी गुफा के पास पहुंच कर ठहर गई और बोली- बहादुर जवान! आपने मेरे लिये जो कुछ तकलीफ़ गवारा की, इसके लिये में आपका शुक्रिया अदा करती हूँ। बस, अब आपके ज़ियादह तकलीफ़ करने की कोई जरूरत नहीं है, इसलिये बाकी रात आप इसी (उंगली से दिखलाकर) खोह में बितावे और सुबह होने पर अपने पड़ाव की ओर चले जावें। यहांसे मेरा किला बहुत नज़दीक है, चुनांचे अब में बेखटके वहां तक पहुंच जाऊंगी।"
इसके बाद उसने अबदुल् को आज्ञा दीकि,-'खोह के अन्दर सूख पत्तों का बिस्तरा बिछादे' यह सुन और एक जलती लकड़ी हमीदा के हाथ में देकर अबदुल उस खोह के भीतर चला गया और उसके प्रवेश द्वारपर हमीदा मेरे सामने खड़ी रही। थोड़ी देर चुप रहकर हमीदा ने हाथ की जलती लकड़ी ऊंचीकर और अपने कमर तक लटकते हुए काले काले धुंघुराले बाली को मुहंपर से हटाकर मेरी आंखों से आंखें मिलाई और बड़ी कोमलता से कहा,-"अजनबी बहादुर! आजके पेश्तर मैंने आप ऐसे बहादुर को कभी ख्याब में भी नहीं देखा था कि जो अपने ऊपर इतनी तकलीफ उठाकर भी अपने दुश्मन की दुखतर पर इतना रहम करे। गो, अभी मेरी उम्र अठारह बरस से जियादह नहीं हुई, है। लेकिन इन्सान की कदर में बखूबी जानती हूं। आह। आपन जान कर भी अपने दुश्मन की लड़की पर इतनी मिहरवानी की जितनी कि हिन्दुस्तानियों से पानी गैरमुमकिन है। लेकिन मुझे अफ़सोस है कि आप ऐसी खस्लत के होकर भी हम लोगों की आजादी पर नाहक तल्वार उठाए हुए हैं। बडे अफ़सोस की बात है कि जंगल पहाड़ों में रहन घाले हमलोगों की आजादी पर नाहक आप लोगों को रश्क होता है,