इस आपत्ति के चकाबू में अकेली छोड़दूं।”
मेरे समझाने से अन्त में हमीदा सम्मत हुई। उस समय रात दो घंटे के लगभग बीत गई थी और गहरे अंधेरे के कारण कुछ भी नहीं सूझता था। ऐसे समय में दुर्गम पार्वतीय पथ में चलना कुछ हंसी ठठ्ठा नहीं है। अस्तु अबदुल जंगली लकड़ी के टुकड़े को मशाल की तरह बाल कर आगे आगे चला, बीच में हमीदा हुई और पीछे मैं। उस समय मैं बड़ी सावधानी से चल रहा था; क्योंकि अंधेरी रात, पर्वतप्रदेश, आगे मार्गदिखलाने वाला अफरीदी शत्रु और अपने ऊपर वैरियों के आक्रमण होने का भया- ये सब कारण ऐसे थे कि जिनसे बहुत सतर्कता के साथ मै चलता था; किन्तु इतने पर भी उस पठानकुमारी के साथ रहने से मुझे जो कुछ आनन्द मिल रहा था, उससे मार्गका-बीहड़ पहाड़ी रास्ते का, श्रम मुझे कुछ भी नहीं होता था।”
निहालसिंह की बातें सुनकर मैंने अट्टहास्य करके कहा, -"बस, मित्र! इसीका नाम प्रेम है!"
यह सुनऔर मेरे मुहं की ओर देख, हंसकर निहालसिंह ने कहा,"मित्र! इसे "प्रेम" कहो, या "परोपकार" कहो; अथवा जो चाहे सो कहो, पर यह तुम निश्चय जानो कि उस समय मेरे मन में दूसरा, या कलुषित भाव नहीं था। तुम चाहे सच मानो, या न मानो; इसका तुम्हें अधिकार है, किन्तु मैं इस समय एक सच्ची घटना तुम्हारे आगे कह रहाहूं, जिसका कि प्रमाण मेरे पास है। इसलिये तुम सच ही जानो कि ऐसी अवस्था में, जैसी दशा में कि मैंने हमीदा की रक्षा करके उसका साथ दिया था, इस "प्रेम" या "परोपकार' का सच्चा रसास्वाद वही जान सकता है, जिसे ऐसा अवसर कभी प्राप्त हुआ हो!"
मैंनेकहा,-'निहालसिंह! तुम क्या मेरी बातों से कुछ रुष्ट होगए! आह! ऐसा न समझो, मैंने जो कुछ तुमसे कहा है, वह शुद्ध भाव से ही कहा है। तुम निश्चय जाना कि तुम्हारी बातों पर मुझे पूरा विश्वास है। अस्तु अब तुम इस कहानी का क्रम पुनः प्रारम्भ करो।"
निहालसिंह कहने लगे,-"उस अंधेरी रात में कितनी दूर मैं गया था, यह नहीं कह सकता, किन्तु यह ठीक है कि हमलोग चुपचाप उस ऊबड़ खाबड़ पहाड़ी की चढ़ाई और उतराई को पार करते, एक पहाड़ी नदी के किनारे किनारे चले जाते थे। उस समय भयानक शीत और बर्फ से मेरे हाथ पैर ठिठुरेजाते थे और दम फूल रहा था; परन्तु