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परिच्छेद]
(९)
यमज-सहोदरा


दूसरा परिच्छेद

"अय बहादुर, अय नौजवान, अय जवांमर्द! मेरा वालिद एक अफरीदी सर्दार है। जब अंगरेजी फ़ौज के सजकदम यहां पर नहीं आए थे, तब मैं अपने वालिद के साथ यहीं रहती थी। लेकिन दुश्मनों की फ़ौज के आजाने से सब औरतें तो एक हिफ़ाज़त की जगह में पहुंचा दी गई हैं, पर मैं अपने वालिद को छोड़ कर कहीं नहीं गई, इसलिये जब मेरा जी घबराता है, तब इस पहाड़ पर चहलकदमी के लिये अपने पड़ाव से निकल आती हूँ। आज भी मैं इस ओर आकर घूम रही थी कि इन हरामज़ादों ने मुझे आघेरा था। अगर खुदा के फ़ज़ल से तुम इस वक्त यहां न आ मौजूद होते तो,-अफ़सोस! मेरी बिल्कुल आबरू बर्बाद हो जाती।"

यों कहते कहते उस सुन्दरी ने कई बार मुझे ऊपर से नीचे तक निहारा और कई बार ठंढी उसासे लीं। फिर मैने पूछा,--"यह तुम्हारे साथ कौन है?"

उस सुंदरी ने कहा, "यह मेरे वालिद का गुलाम है और नाम इसका अबदुल्करीम है, उन कंबख्तों ने यहां आतेही पहिले तो अबदल को पेड़ से बांध दिया, फिर मेरी आबरू लेनी चाही, इतने हीमें तुम आगए।”

मैंने कहा,-" यदि तुम्हारे मुखिया लोग व्यर्थ अंगरेजों के विरुद्ध उत्पात न करते तो आज तुम पर यह आपदा कभी न आती।"

यह सुनतेही उस सुन्दरी की आंखों में खून उतर आया और उसने बेतरह मुझे घूर कर कहा,-" छिः! तुम यह क्या कह रहे हो! इसमें तो सरासर अंगरेजों की ज्यादती है कि वे नाहक हमलोगों के साथ छेड़छाड़ करते हैं, लेकिन तुम तो अंगरेज़ों के गुलाम हो, इसलिये तुम आज़ादी की कीमत नहीं समझ सकते। देखो, उस दिन मेरे वालिद ने सिर्फ अस्सी सिपाहियोंके साथ तुम लोगों को जो शिकस्त दी थी, मैं समझती हूं कि उसे तुम उम्रभर न भूलोगे। मुझे तुम लोगों की सिपहगरी पर अफ़सोस होता है कि कई हज़ार सिपाहियों के रहत भी तुमलोगों