भारत की राय लेकर सन्धि की शर्ते में इस प्रकार का उलट फेरे करेगा जो उसकी मर्यादा के उपयुक्त होगा, तुर्कों की प्रतिष्ठा को स्थापित करेगा और भारत के स्वीकार करने के योग्य होगा ।
पर मेरे विरोधियों का कहना है कि न तो भारतमें योग्यता है और न शक्ति है कि वह इस प्रकार को सफलता प्राप्त कर सके । उन लोगों का कहना अंशतः ठीक है । भारतमें ये गुण इस समय वर्तमान नहीं है । पर क्या जो बातें हम लोगों में नहीं हैं उन्हें हम प्राप्त भी नहीं कर सकते ? क्या के लिये हमें प्रयत्न नहीं करना चाहिये ? क्या इस लाभके लिये किसी तरह का वालदान भी अत्यधिक कहा जा सकता है ?
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(जून ३०, १६३०)
यदि इस बातको सावित करनेके लिये और प्रमाणों की
आवश्यकता है कि तुर्कों के साथ जो शर्ते ते की गई हैं उनका
कारण मित्रराष्ट्रों का साम्राज्यवाद की उत्कट अभिलाषा है तो
विगत चन्द मासकी घटनाओ ने इन्हें भली भांति सावित कर
दिया है । तेलका प्रलोभन, विजयको आकांक्षा, राज्यका
विस्तार,तथा जल और खल मार्गों का प्रभुत्व ऐसा विषय