क्या उसकी सत्यतापर सन्देह नहीं हो सकता? क्या यह विवादग्रस्त विषय नहीं है ? यदि हम लोग मिस्टर पिकेटहाल का मत उद्धत करें, जिनकी बातें हमारे लिये उस इतिहास के विद्वान से कहीं प्रामाणिक हैं तो हम इस निर्णयपर पहुंचते हैं कि---तुर्को ने अपनी प्रजा के पालन में जो उदारता दिखलाई है वह यूरोपीय
राष्ट्रों को उदार नीति से कहीं बढ़कर है। इस विषय में हम
मिस्टर पिकटेहाल के मतको स्वीकार न कर एक ऐसे महा
पुरुष के मतको उद्धृत कर देना चाहते हैं जिसे टाइम्स आफ
इण्डिया भी प्रामाणिक मान सकता है और जिसकी अवज्ञा नहीं
कर सकता। १८७७ में पूर्वीय प्रश्न यूरोपीय राज्यों के लिये एक
गम्भीर और प्रधान प्रश्न हो रहा था। उस समय ब्रिटिश
प्रधान मन्त्री मिस्टर ग्लैडस्टन ने कहा था:--- “यदि यह बात प्रमाणित भी हो जाय कि तुर्क लोग ईसाई जातियों का शासन नीति.परायणता और पूर्ण ईमानदारी के साथ नहीं कर सकते तोभी
इससे यह प्रमाणित नहीं हो सकता कि मुसलमानों या पूर्वीयो
पर शासन करने की भी योग्यता उनमें नहीं रही। कम से कम
इस विषयपर तो तुर्कों के खिलाफ अभी तक कुछ नहीं कहा
गया है।"
इतराजों का उत्तर देनेके बाद अब हम इस लेखक के लेखका
आरम्भ विषय उठाते है जिससे उसने लेखमें प्रवेश कराया है।
इसमें उसने सबसे प्रधान बात ( उसके मतसे ) यह दिखलाई है
कि तुर्कों की हार हुई है, अर्थात् वे इस समय विजित जाति