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खिलाफत की समस्या


सकता। इतने दूर रहकर मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता। केवल ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूं कि वह आपकी रक्षा करे, आपको सन्मार्ग पर ले चले और आपको भारत के कल्याण और उद्धारका साधक बनावे।”

इस पत्र के लेखक की सद्भावना में किसी तरह की आशंका नहीं की जा सकती। मेरे ये मित्र कट्टर ईसाई हैं और ईश्वरके अनन्य भक्त हैं। पर जिन्हें तुकोंकी अवस्थाका सच्चा ज्ञान है वे भलीभांति समझ सकते हैं कि तुओंके विषयमें मेरे मित्रके भाव पक्षपातसे भरे हैं। आर्मेनियावालोंको जो उपमा उन्होने दे दी है उससे स्पष्ट है कि वे इस सम्बन्धमें अधिक जानकारी नही रखते। पर इस लिये उन्हें दोष देना निरर्थक है। विदेशी सभी समाचार पत्र तुर्कों के विषयमें सच्ची बात कभी भी नहीं लिखते। इससे उन समाचार पत्रोंके पढ़नेवालोंको स्थितिका सचा पता कभी नहीं लगता। सभी अंग्रेजी पत्र एक ही सुरमें अलापते हैं। ईसाई धर्माध्यक्ष इन तुर्कोके जानी दुश्मन हैं। इनके पत्रों में जो बातें लिखी जाती हैं वह तुर्कीके स्वार्थ में भीषण चोट पहुंचानेवाली होती हैं। जिस उदारताकी शिक्षा सन्त पालने इतने जोरके साथ दी थी, वह उदारता ईसाई लोग भूल जाते हैं जब वे तुर्कोके सम्बन्धमें अपने पत्रों में लिखने लगते हैं। उनका मत है कि तुर्कोको ईश्वरने केवल इसलिये पैदा किया है कि वे लगातार सताये और जलाये जायं। यही संकुचित विचार न्याय और ईमानदारीका मार्ग रोककर खड़ा है।