सहयोग की आवश्यकता है---तैयार रहेगी तो भारत के मुसलमान किसी भी अवस्था में असहयोग नहीं आरम्भ करेंगे । पर यदि सभी साधन असफल हुए और ब्रिटिश प्रधान मन्त्री ने अपने
वचन को न निबाहा तो आत्माभिमानी मुसलमान के लिये---जिसे
अपना धर्म अपनी जान से भी प्रियतर है---क्या करना शेष रह
जायगा । उस अवस्था में उनके लिये एकमात्र मार्ग उस पापी
सरकार के साथ सहयोग त्यागकर अपने को पाप और कलंक से
बचाना ही उचित होगा और जो हिन्दू और अंग्रेज मुसलमानों की
मैत्रीपर थोड़ी भी आस्था रखते हैं, और जो इस बात को स्वीकार
करते हैं कि मुसलमानों की मांगें पूर्णतया न्यायसङ्गत हैं, उन्हें
हर तरह से मुसलमानों का साथ देने के अतिरिक्त कोई भी अन्य मागे नहीं खुला है ।
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( जून २, १९२० )
खुले और छिपे तौर से मेरे पास अनेक पत्र आ रहें हैं ।
सभाओं में भी मेरे ऊपर आक्षेप किया जा रहा है । मेरे पास
गुमनाम चिट्ठियां आ रही हैं । सबका एक ही अभिप्राय है, एक ही अर्थ है कि मुझे क्या करना चाहिये । कितने लोग तो