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खिलाफत


हैं क्योंकि बड़े लाट महोदय तथा मिस्टर माण्टेगूने इसके प्रतीकारकी शक्तिभर चेष्टा कर ली है । पर यदि अब भी राष्ट्र परिषदका निर्णय भारतीय मुसलमानोंकी आकाक्षाओं के विपरीत होता है तो उन्हें शान्ति धारण करनी चाहिये और सन्तोष करना चाहिये ।

उपरोक्त पत्रके लेखकने जिस शैलीपर इस प्रश्नको लिया है उसकी विवेचना करना अनुचित नहीं होगा। उसने लिखा है- "अरबवालोंके घोर विरोध करनेपर भी भारतीय मुसलमान अरब पर तुर्की सुलतानकी सलतनत चाहते हैं। पर यदि स्वयं अरबवाले तुर्को का शासन स्वीकार करना नहीं चाहते तो अरबों- के आत्मनिर्णयके अधिकारपर केवल झूठी धार्मिक स्पर्धाके कारण दबाव नहीं डाला जा सकता और न इसका अपहरण किया जा सकता है और विशेषकर ऐसी अवस्थामें जब स्वयं भारत उस अधिकारके लिये चेष्टा कर रहा है। जिन लोगोंने खिलाफत. के प्रश्नपर विचार किया है, जिन्होंने उसे समझनेकी चेष्टा की है वे भलीभांति जानते हैं कि मुसलमान लोग यह कदापि नहीं चाहते कि अरबवालोंकी आकांक्षोंके विरुद्ध उनपर तुर्कोके शासन- का बोझ लाद दिया जाये। इसके विपरीत उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया है कि हमलोग अरबवालोंके स्वायत्त शासनका विरोध नहीं करना चाहते। हम लोग अरेबियापर केवलमात्र तुर्कोका आधिपत्य चाहते हैं और अरबवालोंको पूर्ण स्वराज्य दे देना चाहते हैं। मुसलमान धर्मके पवित्रतीर्थक्षेत्रोंपर वे खलीफा.