सकता है ? पर जरासंधके भी दो टुकड़े किये गये। कालिय नाग तो अपने जलाशयको सबसे अधिक सुरक्षित मानता था। उसका विष असह्य था। केवल फूत्कार मात्रसे बड़ी बड़ी सेनाओंको
मार सकता था, पर उसकी भी कुछ न चली । कालयवन चढ़ाई
करके आया। पर वह बीचमे ही निद्रित मुचकुन्दको क्रोधाग्निका
शिकार होकर जल मरा। नरकासुर एक स्त्रीके ही हाथ मारा गया; कौरवेश्वरका नाश द्रौपदीकी क्रोधाग्निमें पतङ्गवत हो गया और शिशुपालको उसकी भगवत-निन्दाने मिट्टीमें मिला दिया।
ये छःही सम्राट उस समय षड् रिपुकी तरह मारे गये। सप्तलोक और सप्तपाताल सुखी हुए और जन्माष्टमी सफल हुई । तथापि हम अब भी हरसाल इस उत्सवको क्यों मनाते हैं ? इसीलिये कि अभी तक हमारे हृदयमेंसे उन षड् रिपुओंका नाश नहीं हुआ है। वे हमें बड़ी तकलीफ दे रहे हैं। हम नष्ट प्राय हो गये हैं। इस समय हमारे हृदयमे श्रीकृष्णचन्द्रका जन्म होना चाहिये । 'जहां पाप है वहीं पाप-पुंज-हारी भी हैं' इस आश्वासनका उदय हमारे हृदय में होना चाहिए । जब मध्यरात्रके अन्धकारमें श्रीकृष्णचन्द्रका उदय हो तभी निराशाग्रस्त संसारको आश्वासन मिलेगा और वह धर्मपर दृढ़ रह सकेगा।