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बड़े लाटका का भाषण


प्राय निकलता है कि भारतकी प्रतिष्ठा तथा मर्यादासे संबंध रखनेवाली कई प्रधान बातोंपर उनके मतमें किसी तरहका परिवर्तन नहीं आया है। वे इतना ही कहकर सन्तुष्ट हैं कि 'मैं इसका निर्णय और जांच इतिहासके हाथमें छोड़ देता हूं।' मेरा कहना है कि इस तरहके शब्दोंका प्रयोग भारतीयोंको उत्ते. जित कर सकता है। जिन लोगोंके साथ घोर अन्याय और अत्याचार किया गया है तथा जिनके सिरपर आज भी वे अफसर अपना भार रख रहे हैं जिन्होंने अपनी जिम्मेदारीको निबाहने में पूरी अयोग्यता दिखलाई है, उनके लिये इतिहासका सहानुभूति पूर्ण निर्णय भी किस कामका होगा। एक तरफ तो पञ्जाबके अत्याचारोंके प्रतीकारका वचन न देना और दूसरी ओर सहयो. गकी आवश्यकता दिखलाना, अन्तिम सीमाको सङ्कीर्ण हृदयता है। एक तरफ तो रोगी दर्द के मारे तड़प रहा है और दूसरी ओर उसके सामने आपने उत्तमसे उत्तम भोजनके पदार्थ रख दिये। क्या उससे उसके दर्दमें जरा भी कमी आ सकती है ? क्या उसके दिलमे कड़ी चोट नहीं पहुंचेगी कि घेद्य हमारी हंसी उड़ा रहा है ? खिलाफनके लिये जो कुछ किया जा रहा है उससे भी बड़े लाट महोदय असन्तुष्ट हो हैं। उन्होंने अपने भाषणमें कहा है :--हमारी सरकारने भारतीय मुसलमानोंकी बातें संधि परिषदके सामने रखीं। हम लोगोंने इस सम्बन्धमें मुसलमा- नोंकी तरफसे घोर प्रयत्न किया पर इसका फल हमें असहयोगकी धमकीके रूपमें मिला है। पर इसमें हमारा क्या वश है।भार-