अच्छी तरह बतला दिया कि मेरी अवज्ञा-यदि इसे अवज्ञा
कह सकते हैं-घृणाके भावमे भर्ग न रहकर उदासीनताके
भावसे भरी थी। हमारं हृदयमें किसी प्रकारका रोष या द्वेष
नहीं था बल्कि पूर्ण आत्मसंयम और आदरका भाव भरा
था । हमने क्षमा प्रार्थना नही की, इसका प्रधान कारण
यही था कि सदिच्छासे रहित क्षमा प्रार्थना हमारी प्रकृतिके
एकदम विपरीत है। हमारो धारणा है कि सविनय अवज्ञाका
इससे उत्तम दूसरा उदाहरण नही मिल सकता। हमे इस
बातका भी िश्वास है कि इम अवज्ञा भावके पीछे शान्ति
और नम्रताका जो भाव भग था उसको अदालतने भली
भांति समझ लिया। जस्टिस मार्टनने अदालतके अपमानकी
धाराकी व्याख्या करके अपना वुद्धिका प्रखरताका परिचय
दिया है और हमारे विरुद्ध फसला किया है। पर हमे इस
बातका अतिशय हर्ष है कि उन्होंने कही यह नहीं लिखा है कि
हमने अनधिकार चर्चा की। जस्टिस हेवर्डने अपने फैसलेमे
इसे निष्क्रिय अर्थात् सविनय अवज्ञाका रूप दिया है और
यही कारण है कि उन्होंने किसी तरहके दण्डकी मीमांसा
नही की। इस स्थानपर सविनय अवज्ञाका ज्वलन्त उदाहरण
हमलोगोके सामने है। यदि अवज्ञा सविनय होनी है तो
सदिच्छापूर्ण, उदार, नियन्त्रिन, अनुच्छखल होना .हिये भार
किमी पूर्ण अनुभव किये हुए सिद्धान्तके आधारपर होनी
चाहिये. उद्धत न होनो चाहिये और सबसे बढ़कर इसके अन्तर्गत
असद्भाव और घृणा न हाना चाहिये । जिस तरहका अवज्ञा हमने
तथा श्रीयुत देसाईने का थी उसमे ये सभी भाव विद्यमान थे।
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