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हिंसा और अहिंसा


एक वर्ष पहले कोई इस बातका स्वप्नमे भी संभावना नहीं करता था कि ऐसे विकट प्रश्नपर-जिसमें मुसलमानोंका कट्टरपन जानमालकी भी परवा नही करता-इस प्रकारकी शान्तिसे काम लिया जा सकता है । तिसपर भी ऐसे दिन जब लोगोंकी बेकारी एकदमसे बढ़ जाती है और लोग फालतू हो जाते हैं। पर प्रार्थनाने बेकारीके प्रश्नको हल कर दिया था। सबके लिये यह कर्तव्य निर्दिष्ट कर दिया गया था कि कोई न दङ्गा सफाद कर, न क्रोध या गुस्सा करे. केवल न्याय और सचाईके लिये तन, मनसे प्रार्थना करे । यह सच है कि सबने प्रार्थना नहीं किया पर प्राथनाका भाव घट घट में व्याप रहा था। और यह भाव क्रोध, गेष, आवेश तथा हिंसाकै भावके कहीं ऊपर विराज रहा था। यही कारण था कि हड़तालका दिन इतनी शान्ति के साथ बीत गया मानों किली भी प्रकारकी असाधारण घटना नहीं घटी है। बम्बईको महती सभा जिसमें तीस हजार आदमी उपस्थित थे विचित्र दृश्य उपस्थित कर रही था। जो लोग वहांपर उपस्थित थे उनके चेहरे को देखकर यही प्रतीत होता था कि उनमे पूरी दृढ़ता है। पर उन लोगोंने अपनी दृढ़ताको प्रगट करनेका कोई भी वाह्य उपकरण नही उपस्थित किया। प्रबन्धकोंका इस बातका श्रेय है कि उन्होंने एक बार पुनः प्राचीन शान्ति, स्थिरता और एकताको वतमान अशान्ति, शोर- गुल और जोश खरोशके स्थानपर ला जमाया। आजकलके भावका फल हिंसा है और प्राचीन कालके भावका फल सत्याग्रह