भिक्षुराज बह सबसे जरा हटकर, पीछे की तरफ बैठा हुअा और उसका एक हाथ नाव की एक रस्सी पर था। उसकी प्टि सागर की चमकीली, तरंगित जल- राशि पर न थी । वह दृष्टि से परे किसी विशेष गम्भीर और विवेचनीय दृश्य को देख रहा था। उसका मुख समुद्र-तीर को उन हरी-भरी पर्वत-श्रेणियों की ओर था, और उनके बीच में छिपते सूर्य को वह मानो स्थिर होकर देख रहा था। उसकी ठुड्डी उसके कन्धे पर घरी थी। कभी-कभी उसके हृदय से लम्बी श्वास निकलती और उसके होंठ फड़क जाते थे। इसके निकट ही एक और मूर्ति चुपचाप पाषाण-प्रतिमा की भाति बैठी थी, जिसपर एकाएक दृष्टि ही नहीं पड़ती थी। उसके वस्त्र भी पूर्व-वर्णित युरुषों के समान थे । परन्तु उसका रंग नवीन केले के पत्ते के समान था । उसके सिर पर एक पीत वस्त्र बंधा था, पर उसके वीच से उसके धुवराले और चमकीले काले वाल चमक रहे थे। उसके नेत्र शुक्र नक्षत्र की भांति स्वच्छ और चंचल थे। उसका अरुण अधर और अनिंद्य सुन्दर मुख-मण्डल सुधावर्षी चन्द्र की स्पर्धा कर रहा था । वास्तव में वह पुरुष नहीं, बालिका थी । वह पीछे की ओर दृष्टि किए उन क्षण-क्षण में दूर होती उपत्यका और पर्वत श्रेणियों को करण और डब- डबाई मांखों से देख रही थी, मानो वह उन चिरपरिचित स्थलों को सदैव के लिए त्याग रही थी। मानो उन पर्वतों के निकट उसका घर था, जहां वह बड़ी हुई, खेली। वह वहां से कभी पृथक् न हुई, और आज जा रही थी सुदूर अज्ञात देश को, जहां से लौटने की आशा ही न थी। यह युवक और युवती ससागरा पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट् मगधपति प्रिय-- दर्शी अशोक के पुत्र महाभट्टारकपादीय महाकुमार महेन्द्र और महाराजकुमारी संघमित्रा थे, और उनके साथी बौद्ध भिक्षु । ये दोनों धर्मात्मा, त्यागी, राज- संतति-प्राचार्य उपगुप्त की इच्छा से सुदूर सागरवर्ती सिंहलद्वीप में भिक्षुवृत्ति ग्रहण कर बौद्ध धर्म का प्रचार करने जा रहे थे। महाराजकुमारी के दक्षिण हाथ में बोधि वृक्ष की टहनी थी। प्रकाश का प्रकाश और रंग धुल गया, और धीरे-धीरे अन्धकार ने चारों ओर से पृथ्वी को घेर लिया। बारहों मनुष्य नीरख अपना काम मुस्तैदी से कर रहे थे । क्वचित् ही कोई शब्द उनके मुख से निकलता हो, कदाचित् वे भी अपने
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