शुन्छाच रण से प्राप्त की है, वह तुम्हारे समस्त दुःखों को प्रानन्द में परिवर्तित कर देगी। यशोधरा ने धैर्य धारण कर मन के वेग को रोका । अब वह समझ गई कि यह महापुत्व मेरा पति नहीं, जगत् का महान् धर्मगुरु है। उसने हढ़ता से कहा-हे स्वामी ! पिता की सम्पत्ति पर पुत्र का अधिकार होता है। यह आपका पुत्र है। आपके पास चार खजाने है, उन्हें मैंने नहीं देखा; पर आप उन्हें अपने पुत्र को प्रदान करें। इतना कहकर उसने सप्तवीय बालक को चरणों में डाल दिया। बुद्ध ने कहा-तुम्हारा मातृत्व धन्य है। तुम्हारे पुत्र को मैं ऐसा द्रव्य न दूगा जो नाशवान् हो और जो उसे शोक और चिन्ता में डाले । मैं उसे चारों सत्य का भेद समझाऊंगा, यदि उसमें उन्हें धारण की योग्यता हुई। बालक ने कहा-हे पिता ! मैं योग्य बनूंगा। 'वत्स ! तुम्हारा कल्याण हो! तुम मेरे साथ प्रायो।' बालक को अग्रसर कर बुद्ध लौट गए । गोपा अपने उस एक मात्र हृदयधन को भी गंवाकर ठगी-सी खड़ी रह गई। एशिया के महासाम्राज्य उस वुद्ध के सत्य-कर्म के सम्मुख भुके और वह महान् धर्मात्मा पृथ्वी पर सदा के लिए अमर गया।
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