पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/४३

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प्रबुद्ध गोपा एक बार कम्पित हुई। उसने कुमार का हाथ पकड़कर उठाया और कहा-आर्य पुत्र ! नगर-निरीक्षण तो आपने किया, अव मेरी सारिका का निरीक्षण भी कीजिए । देखिए यह आपकी तरह मेरा नाम पुकारना सीख गई है। आज आपको उस मयूर के जोड़े को स्वयं भोजन कराना होगा। इसके सिवाय अाज भाप अन्धकार-निरीक्षण न कर सकेंगे? अभी से शयन-कक्ष रहना होगा। बहुत चेष्टा करने पर उसके होठों पर हास्य पाया । कुमार ने अन्यमनस्क होकर कहा-~-अच्छा प्रिये ! तुम्हारी ही बात रहे। 'पुत्र ! हे भगवान् ! यह नया बन्धन उत्पन्न हो गया ! गोपा क्या कम थी ? वह मानन्द और हास्य का मधुर अमृत एक क्षण भी मुझे नीरस नहीं रहने देना चाहता । परन्तु जो स्वभाव से नीरस है, वह सरस होगा कैसे ? गोपा के प्रेम-पाश को तोडने में मैं कितना बल लगा बुका, वह टूटा नहीं। अब यह पुत्र ? अरे ! कैसा सुन्दर है यह। इसे केवल एक बार देखने के लिए मैंने समस्त संयम नष्ट कर दिया। वह स्वर्ण की दीप्त कान्ति धारण करने वाला अर्द्धनिमीलित नेत्र, छोटा सा मुख, मानो मेरी ही एक सजीव छाया- मुझसे पृथक् परन्तु मेरे प्राणों की एक कोर ! मैंने प्राण दिया और गोपा ने शरीर । गोपा के समान ही सुन्दर और प्रिय, कोमल और रुचिर। भरे! वह मेरा पुत्र है। हम दोनों के प्राण और शरीर जिम महायोग में एक राशि पर पाए, वह इन्द्रियातीत प्रानन्द का आदान-प्रदान जिस क्षण हुआ, उसकी ऐसी स्थायी स्मृति ? गोपा ! जादूगरनी, यह क्या किया? उस एक क्षण के करोड़वें हिस्से की प्रानन्द-लहर को तुने ऐसा स्थिर बना दिया ? मैंने उसे गोद मे उठाया। गोपा का वह मूक अनुरोध और वह अप्रतिम उल्लास ? गोपा के नेत्रों में मानो उसके प्राण ही था गए थे। उसने उसे मेरी गोद में दिया और मेरे चरण-चुम्बन किए-~~-यह इतनी विनय क्यों ? तव की गोपा प्रिया अव मातृ- भाव में प्राप्लावित हुई ! अच्छा हो, उसके नेत्र कैसे थे? गोपा ने कहा था, ठीक मेरे जैसे ! अरे ! कहीं मैंने ही जन्म नहीं ले लिया? नहीं तो उस अवोध बालक पर मेरी इतनी ममता क्यों होती ? मेरा उसका परिचय कबका है ?' राजकुमार को कोमल शय्या पर नींद न आई। वे चुपचाप उठकर उपवन