U बौद्ध कहानिय 7 'इस स्तब्ध अन्ध निशा में?' 'अन्ध निशा तो मानवहृदय में ओतप्रोत है। तुम समझती हो जव सूर्यो- दय होगा, तद वह छिन्न-भिन्न हो जाएगी ?' 'मैं मूर्ख स्त्री और क्या सोचूगी ?' 'नहीं गोपा, श्रात्मप्रतारणा की आवश्यकता नहीं ; पर इस बात को तो सोचो। मानद-आत्मा न जाने कब से उसी प्रकार से सो रही है जैसे इस समय ससार । और वह उसी प्रकार अन्धकार में व्याप्त है जैसे इस समय पृथ्वी । यह निद्रा और अन्धकार कुछ समय में दूर हो जाएगा, उपा का उदय होगा, जगत् सुन्दर हो जाएगा, प्रकृति भांति-भांति के रंग का शृंगार करेगी, आलोक से आकाश और भूलोक शोभायमान होगा, प्राह ! कैसी सुन्दर वात है, परन्तु मानद-हृदय का अन्धकार और सुषुप्ति तब भी दूर न होगी। यह अक्षय अन्ध- कार, यह चिर-मोह-निद्रा मनुष्य पर शाप है। मनुष्य-जाति के इस दुर्भाग्य पर तुम्हे करुणा नही पाती ? 'और इस अनन्त मानव समुदाय में अकेले भार्यपुत्र जागरित हैं ?' "प्रिये ! व्यंग्य क्यों करती हो ?' "अच्छा, आर्यपुत्र ! इस अन्धकार मे जागरित होकर किस सौभाग्य की आशा करते हैं ? इस अन्धकार में तो जागरित पुरुष की अपेक्षा सुख से सोए पुरष ही अधिक भाग्यशाली है ? कुमार ने उत्तेजित होकर गोपा का हाथ पकड़ लिया। कहा-किन्तु, यदि उनका कभी प्रभात न हो तो? उस निद्रा का कभी अवसान न हो तो ? गोपा विचलित हुई, निरुत्तर हुई । वह पति के निकट बैठकर कुछ सोचने लगी। सिद्धार्थ ने कहा-प्रिये ! यदि मैं अपने प्रकाश की रेखा से इस अन्धकार को छिन्न-भिन्न कर सकू ? जागरित होकर मानव-समाज सुन्दर पालोक देखे तो, गोपा ? क्या हमारा जीवन धन्य न होगा ? 'अवश्य ।'—गोपा ने दृढ़ता से कुमार का हाथ पकड़कर कहा। 'तब इसके लिए हृदय विदीर्ण करना पड़ेगा।' 'विदीर्ण ?' सिद्धार्थ कुछ न बोले। दोनों महाप्राण आन्दोलित हो रहे थे। 'हृदय 1
पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/४०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।