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प्रबुद्ध

अमिताभ बोधिसत्त्व गौतम बुद्ध की प्रभाव-सत्ता की समता विश्वमानवों में केवल ईना कर सकता है, वह भी आंशिक। तिसपर गवेपणाएं ऐसी है कि कहा जाता है---ईसा बौद्ध शिष्य है। गौतम बुद्ध ने ईसा से छह सौ वर्ष पूर्व भारत में जन्म लेकर जिस धर्म-चक्र का प्रवर्तन किया वह विश्व का सर्व-प्रथम सर्व-सभ्य विश्व-धर्म था। सारे संसार की सभ्य,अर्धसभ्य जातियों को उसने संयम,प्रेम,त्याग और अहिंसा का संदेश दिया और जिस काल सामन्तशाही तथा स्वेच्छा-जीवन ही रूढिवाद बना हुआ था, धर्म और जीवन को उसने व्यावहारिक और सरल रूप दिया। मनुष्य की जाति को उसने वह दिव्य चक्षु दिया जिससे वह ज्ञानावलोकन कर अपना और औरों का भला कर सके। प्रस्तुत कहानी में उसी दिव्यात्मा के जीवन-रेखाचित्र भाव-ध्वनि में अंकित है। यह कहानी अब से कोई चालीस साल पूर्व सन् १९१६ में लिखी गई थी। उन दिनों हिन्दी में बौद्ध साहित्य का अध्ययन विरल था और आचार्य के साहित्य-प्रागण में प्रवेश का भी प्रभात था। इस दृष्टि से कहानी में उदीयमान भावी महान् साहित्यकार के दर्शन होते हैं। कहानी में भाव-कल्पना और मानसिक घात-प्रतिधात का प्रभावशाली और गम्भीर प्रदर्शन है। तथा कथनोपकथन शैली में सतेज प्रवाह है जो मानों और विचारों के अद्भुत एकत्व का प्रकटीकरण करता है---कहानी में महाप्राण बुद्ध के अंतर्द्वन्द को साकार किया गय है।

वृद्ध महाराज शुद्धोदन विशेष प्रसन्नवदन दिखाई पड़ रहे थे। वे प्रासाद के री अलिन्द में एक स्फटिक मणि की पीठ पर बैठे थे। उन्होंने सम्मुख कुछ र खड़े हुए प्रतिहार को पुकारकर कहा--अरे! देख तो युवराज सिद्धार्थ मृगया से लौटे या नहीं?

प्रतिहार ने आगे बढ़ और धरती पर बल्लम टेककर कहा---परम परमेश्वर, वैष्णव, महाभट्टारकपादीय महाकुमार अभी-अभी मृगया से लौटे है, और युमण्डल में विश्राम कर रहे हैं।

'अच्छा-अच्छा, महानायक प्रबुद्धसेन और महामात्य विजयादित्य को यहा दो।'

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