३०० भाव कहानिया 'यह तो है ही।' 'इसीसे वह पति को देवता कहती हैं, पतिपद पूजती है और अपने को चरणदासी कहती है।' श्रद्धा हंस दी। उसने कहा--रेसा, तू तो व्यंग्य-बाण बरगाने लगी। बच- पन में हम लोग गुड्डे-गुड़ियों से कैसा खेलती हैं, जैसे वे जीवित पुतले हैं। बडी होने पर इस पुरुष पुतले से वैसे ही खेलती हैं। फिर हम हिन्दू लोग तो ईंट- पत्थर, वृक्ष, नदी सभी को देवता मानते हैं। फिर पुरुषों ही को देवता मानने से क्या नई बात हुई ! इसके अतिरिक्त भारतीय पुरुषों को सारी पृथ्वी पर केवल उनके अन्तःपुर में ही सम्मान मिलता है। इमीसे हम उन्हें केवल मालिक ही नहीं, देवता मान लेती हैं। पर यह क्या हम नहीं जानतीं कि वे तृण और मिट्टी के पुतले मात्र है। हकीकत में जहां गौरवपूर्ण मनुष्यत्व है, वहां छपवेश की आवश्यकता ही नहीं है। जहां मनुष्यत्य की कमी है, वहाँ देवता का ढोग रचना पड़ता है। 'परन्तु जो यथार्थ मनुष्य है, उसे देवता का अध्यं लेने लज्जा आनी चाहिए। इसके अतिरिक्त जो पूजा ग्रहण करता है, उभे पूजा के योग्य अपने को बनाना चाहिए। परन्तु भारत में लो में ऐसा देखती हू कि पुरुष-सम्प्रदाय अपने इस मिथ्या देवत्व पर ही गर्व करता है । उसकी योग्यता जितनी ही कम है, उतना ही उसका आडम्बर अधिक है। इसीसे वह स्त्रियों को पातिव्रतधर्म और पति- व्रता के माहात्म्य पर जी-जान से उपदेश दे रहा है। चाहिए तो यह कि पत्नियों को पतिपद-पूजा करना सिखाने की अपेक्षा पतियों को देवता होने की वास्तविक शिक्षा दी जाए।' श्रद्धा हंस पड़ी। उसने कहा-देवता होने की भी कहीं शिक्षा दी जा सकती है ? वह तो असल में हमारी मनोकल्पना ही है । फिर पुरुष यदि देवता है तो हम स्त्रियां भी तो देवी हैं । चलो छुट्टी हुई। 'देवीजी ! तुम तो केवल कविता की देवी हो। घर के देवता तो पुरुष ही हैं। देवता का सारा भोग तो वही पाते हैं। कहने को तुम सुग्व-सम्पत्ति की देवी हो, पर सच पूछो तो सारी पृथ्वी पुरुषों की सम्पत्ति है । इसके अतिरिक्त यदि कु हो तो वह तुम्हारा हो सकता है । छप्पन भोग उनके लिए हैं और जूठन तुम्हारे लिए प्रकृति का मुक्ताकाश-विहार उनके लिए है और घर की एक खिडकी क
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