पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/३०५

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युगलागुलीय - श्रद्धा का विवाह विश्वविद्यालय की शिक्षा समाप्त होते ही हो गया था। उसके पति विश्वविद्यालय में जीव-विज्ञान के प्राध्यापक थे। वह भी अपने विषय के पारगत पण्डित थे। उनके दवीन अन्वेषणो की उन दिनों देश भर में चर्चा थी। वे मृदुलस्वभाव, मितभाषी, गम्भीर प्रकृति, धर्मभीरु और एक अंश तक लजीले तमण थे । सब मिलकर उन्हें मिलनसार नहीं कहा जा सकता था। अवश्य ही वे बहुत कम लोगो से मिलते-जुलते थे । आठों पहर अध्ययन में लगे रहते थे । पास-पड़ोस के सब लोग उन्हे मजाक से 'मौनी बाबा' कहा करते थे। क्योंकि वे किमोसे बातचीत तक नहीं करते थे। परन्तु पड़ोस के सभी छोटे- बड़े लोगों के सुख-दुःश्न में तुरन्त पहुंच जाते थे। वे एक आदर्श शान्त, शिष्ट पुरुप थे। एकान्तप्रिय होने पर भी वे शुष्क काष्ठ न थे। उनका मुक्त हास्य उनके हृदय की स्वच्छता और विशालता को प्रकट करता या । इस बीच अद्धा को एक कन्या-रत्न की उपलब्धि हुई थी। कन्या अभी तीन वर्ग की थी। रमवा नाम था रश्मि । वह हृष्ट-पुष्ट, सुन्दर और लुभावनी वालिका थी। ज्योतिष्मती रविरश्मि की भाति उज्ज्वल कान्तियुक्त उसका दन्तुल हास्य शरच्चन्द्र गौमुदी की नाति मोहक था, और उसकी अटपटी तुतलानी बाणी वीणा की झंकार से भी अधिक मधुर और हृदयहारिणी थी। माता उसकी मनोविज्ञान की प्राचार्या थी। अत. उसने उस वालिका को उसके जीवन के प्रारम्भिक टीन वर्षो में एक बार भी रोने. आंसू बहाने का हठ करने, मचलने का अवसर नहीं दिया था। इसी अल्प वय में वह अनुशासित, नियमित और माझदार बन गई थी । जब देखिए तभी उसका शुभ हास्य, घर-आगन में बिसरा रहता, उनको तोतली वीणाविनिन्दित वाणी और अट- पटी चाल की ठुमकियों से घर अनुप्राणित रहता था। रेखा इस बीच जरा भर गई थी । वपन से ही वह हृष्टपुष्ट थी। रंग उनका मोती के समान इज्जवल था। उसपर अब चम्पे की भाभा के समान पीत प्रभा छा रही थी। उसके शरीर के उभार साथ हिणी का गाम्भीर्य उसके अंग में उग रहा था। अभी वह केवल अट्ठाईस ही वर्ष की थी, पर उसमें नारीत्व, पत्नीत्व, मातृत्व और गृहिणीत्व के तत्व मिश्रित होकर उसकी सुषमा की अपूर्व वृद्धि कर रहे थे। प्रत्येक उस व्यक्ति को जो उसके सम्पर्क में पाए, छोटा या बड़ा, उसकी मन्द मुस्कान और विनयशील के पारे नत-