पथ पर अपने बहुमूल्य शाल बिछा रहे थे । महाप्रभु बिना कुछ कहे एकरस धीरे-
धीरे आगे बढ़ रहे थे। वह महान् संन्यासी, प्रवल वीतरागी महाप्राण वृद्धपुरुष
श्रेष्ठ जय-जयकार की प्रचण्ड घोषणा से भी जरा भी विचलित नही हो रहा
था। उसकी दृष्टि मानो पृथ्वी में पाताल तक घुस गई थी। पौर स्त्रियां झरोखों
से खील और पुष्प वर्षा कर रही थी। अम्बपालिका का तोरण आते ही चार
दण्डधरों ने दौड़कर पथ पर कौशेय बिछा दिया। द्वार में प्रवेश करने पर सर्वत्र
कौशेय विछा था । अनगिनत कर्मचारी भिक्षुगण के सम्मानार्थ दौड़ पड़े। पीत-
वसनधारी मुण्डित भिक्षु नक्षत्रों की तरह उस विशाल प्राङ्गण में, महाजनसमूह
में चमक रहे थे।
अतिथि-शाला में भगवान् के पहुंचते ही अम्बपालिका ने २०० दासियों के साथ स्वयं आकर तथागत के चरणों में सिर झुकाया और वहां से वह अपने अञ्चल से पथ की धूल झाड़ती हुई प्रभु को भीतरी अलिन्द तक ले गई। इस समय प्रभु के साथ केवल आनन्द चल रहे थे।
प्राङ्गण के मध्य में एक चन्दन की चौकी पर शुद्ध प्रासन बिछा था। अम्बपालिका के अनुरोध पर प्रभू वहां विराजमान हुए। अम्बपालिका ने अर्ध्य-पाद्य दान करके भोजन प्रस्तुत करने की आज्ञा मांगी। आज्ञा मिलते ही अम्बपालिका स्वयं स्वर्ण-थाल में भोजन ले आई। अनेक प्रकार के चावल और रोटिया थीं। अम्बपालिका सेवा में करबद्ध खड़ी रही। भगवान् ने मौन होकर भोजन किया और तृप्त होकर कहा- बस ।
अम्बपालिका के नेत्रों से अश्रुधारा बहीं। प्रभु ज्यों ही शुद्ध होकर आसन पर विराजे, अम्बपालिका ने पृथ्वी में गिरकर प्रणाम किया।
भगवान् ने कहा-अम्बपालिका, अब और तेरी क्या इच्छा है ?
'प्रभु एक तुच्छ भिक्षा प्रदान हो ?'
तथागत ने गम्भीर होकर कहा-वह क्या है ?
'प्रभो ! आजा कीजिए, कोई भिक्षु अपना उत्तरीय प्रदान करे।' आनन्द ने उत्तरीय उतारकर अम्बपालिका को दे दिया । क्षण भर के लिए अम्बपालिका भीतर गई परन्तु दूसरे ही क्षण वह उसी वस्त्र से अंग लपेटे आ रही थी। उस वौद्ध भिक्षु के प्रदान किए एकमात्र वस्त्र को छोड़कर उसके पास न कोई और वस्त्र था न आभरण । उसके नेत्रों में अविरल अश्रुधारा बह रही थी। भगवान् विमूढ