सवारी रोकने की आज्ञा दी। वह पैदल भगवान् के निवास तक पहुंची, पीछे
१०० दासियों के हाथ में पूजन-सामग्री थी।
तथागत बुद्ध की अवस्था ८० को पार कर गई थी। एक गौरवर्ण, दीर्घ- काय, श्वेतकेश, कृश, किन्तु बलिष्ठ महापुरुष पद्मासन से शान्त मुद्रा में एक सघन वृक्ष की छाया में बैठे थे। सहस्रावधि शिष्यगण दूर तक मुण्डितशिर और पीत वस्त्र धारण किए स्तब्ध-से श्रीमुख के प्रत्येक शब्द को हृत्पटल पर लिख रहे थे। आनंद नामक शिष्य ने निवेदन किया-प्रभु ! अम्बपालिका दर्शनार्थ आई है। तथागत ने किंचित् हास्य से अपने करुण नेत्र ऊपर उठाए । अम्बपालिका धरती में लोटकर कहने लगी-प्रभो ! त्राहि माम् ! त्राहि माम् !
भगवान् ने कहा-कल्याण ! कल्याण ! आनन्द ने कहा-उठो अम्ब- पाली ! महाप्रभु प्रसन्न है । अम्बपाली ने यथाविधि भगवान् का अर्घ्यदान, पाद्य मधुपर्क से पूजन किया और चरण-रज नेत्रों में लगाई, फिर हाथ बांध सम्मुख खड़ी हो गई।
भगवान् ने हंसकर कहा-अब और क्या चाहिए अम्बपाली ?
'प्रभो ! भगवन् ! इस अपदार्थ का आतिथ्य स्वीकार हो, इन चरण-कमलों को देवदुर्लभ रज-कण किङ्करी की कुटिया को प्रदान हो ।'
प्रभु ने करुण स्वर में कहा—तथास्तु ! भिक्षुगण सहस्र कण्ठ से जयोल्लास में चिल्ला उठे। परन्तु यह क्या ? उस नाद को विदीर्ण करता हुआ एक और नाद उठा। भगवान् ने पूछा-आनंद ! यह क्या है ? 'प्रभो ! लिच्छविराजवर्ग और अमात्यवर्ग श्रीपाद-पद्म के दर्शनार्थ आ रहा है !' प्रभु हंस पड़े। अम्ब- पालिका हट गई। प्रतापी लिच्छविराजागण, राजकुमार, अमात्यवर्ग और अन्तःपुर ने एकसाथ ही भगवान् के चरणों में महान् मस्तक झुका दिए । भगवान् ने कहा-कल्याण ! कल्याण !!
महाराज ने पद-धूलि मुकुट पर लगाकर कहा-महाप्रभु ! यह तुच्छ राज- धानी इन चरणों के पधारने से कृतकृत्य हुई । परन्तु प्रभो ! यह वेश्या की बाड़ी है, श्रीचरणों के योग्य नहीं। प्रभु के लिए राजप्रासाद प्रस्तुत है और राजवंश प्रभु-पद-सेवा को बहुत उत्सुक है। भगवान् ने हंसकर कहा-तथागत के लिए वेश्या और राजा में क्या अन्तर है ? तथागत समदृष्टि है।
'प्रभो ! तब कल का आतिथ्य राज-परिवार को प्रदान कर कृतार्थ करें।'