धिराज पीठ पर विराजे । सम्राट ने ऊपर का परिच्छद उतार फेंका, वे पीठ पर
विराजमान हुए।
अम्बपालिका ने नीचे धरती में बैठकर सम्राट का गन्ध, पुष्प आदि से सत्कार किया। इसके बाद उसने अपनी मद-भरी आंखें सम्राट पर डालकर कहा-महाराजाधिराज ने बड़ी अनुकम्पा की, बड़ा कष्ट किया।
सम्राट् ने किंचित् मोहक स्वर में कहा-अम्बपाली ! यदि मैं यह कहूं कि केवल विनोद के लिए आया हूं तो यह यथार्थ बात नहीं। मैं तुम्हारे रूप-गुण की प्रशंसा सुनकर स्थिर नहीं रह सका, और इस कठिन युद्ध में व्यस्त रहने पर भी तुम्हें देखने के लिए शत्रुपुरी में घुस पाया, परन्तु तुम्हारा प्रबन्ध धन्य है।
अम्बपालिका-(लज्जित-सी होकर ज़रा मुस्करकर) मैं पहले ही सुन चुको हूं कि देव स्त्रियों की चाटुकारी में बड़े प्रवीण है ।
सम्राट-चाटुकारी नही, अम्बपालिके ! तुम वास्तव में रूप और गुण में अद्वितीय हो।
अम्बपालिका-श्रीमान्, मैं कृतार्थ हुई ! इसके बाद वह अपने मुक्ता-विनि- न्दित दांतों की छटा दिखाते हुए सम्राट् की सेवा में खड़ी हुई। सम्राट ने प्याला ले और उसे खीचकर बगल में बैठा लिया। सङ्केत पाते ही दासियों ने क्षण- भर में गायन-वाद्य का सरंजाम जुटा दिया। कक्ष सङ्गीत-लहरी में डूब गया और उस गम्भीर निस्तब्ध रात्रि में मगध के प्रतापी सम्राट् उस एक वेश्या पर अपने साम्राज्य को भूल बैठे !
एक वर्ष बीत गया। प्रतापी लिच्छवि-राज मगध साम्राज्य के आगे मस्तक नत करने को बाध्य हुए। अब वैशाली में वह उमंग न थी। अम्बपालिका का द्वार सदैव वन्द रहता था। द्वार पर कड़ा पहरा था। कोई व्यक्ति न उसे देख सकता था, न उससे मिल सकता था। उसके वहुत से युवक मित्र उस युद्ध मे निहत हुए थे। पर जो बच रहे थे वे अम्बपाली के इस परिवर्तन पर आश्चर्यान्वित थे । वे किसी भी तरह उसका साक्षात् न कर सकते थे । दूर-दूर तक यह बात फैल गई थी।
अम्बपालिका के सहस्त्रावधि वेतन-भोगी दास-दासी, सैनिक और अनुचरों मे से भी केवल दो व्यक्ति थे जो अम्बपाली को देख सकते और उससे बात