जीवन्मृत २३१ सब समझ रहे हैं। वे थोडी-थोड़ी बातें करते और चले जाते । एक दिन हात् मुझे बुलाकर उन्होंने कहा-~-क्या तुम अपने पिता के सच्चे पुत्र और साहसी देश-सेवक हो ? मैन' कहता किस तरह ? मैंने सिंह-गर्जन की तरह हुङ्कार भरी । राजा साहब ने मुख्य उद्देश्य बता दिया। मैं सन्न हो गया । वै मृत्यु को जेब में लिए फिरते थे, अपने लिए भी और मेरे लिए भी । उस महावीर के सन्मुख कायर बनना मेरे लिए शक्य न रहा । मैं 'हाँ' करता गया। स्वामीजी के सम्मुख भी 'हाँ' की । स्त्री ने हाहाकार किया, परन्तु एक अपूर्व गर्व-भावना मन में आ गई थी । मैं पीछे न हटा । मैंने अपना जीवन राजा साहब के हाथों सौंप दिया । फिर तो मैं इस तरह उड़ा, जैसे प्रांधी से उड़ता हुमा और डाल से टूटा हुया सूखा पत्ता। मैंने अपनी यात्मा से अधिक उसपर विश्वास किया था। उसके पिता मेरे गुरु और परम श्रद्धास्पद थे । वे अपने जीवन के प्रारम्भ से ही देश के एक अप्र- तिम सेवक रहे, उनकी सन्तान कैसे देश और जाति की मित्र न होगी ? मैं इसके विपरीत सोच ही न सका । इस प्रसङ्ग से प्रथम कई वर्ष से मैं उससे परि- चित था । पत्र-व्यवहार और मुलाकात सभी में वह एक उत्कट देशभक्त, वीर युवक ध्वनित होता रहा । जब मैंने उससे अपना गम्भीर अभिप्राय निवेदन किया, तो वह एकटक मेरे मुख को देखता रह गया। उसके होंठ और कण्ठ सूख गए। बड़ी चेष्टा करके उसने कहा-श्रीमन्, आपने राज्य और रियासत को धूल के समान त्याग दिया; राज्य, भोग और ऐश्वर्य से दूर हो गए, दिन- रात देश और जाति की ध्वनि प्रापके रोम-रोम से निकलती है। अब आप क्या सचमुच प्राणों की बाजी भी लगा देने को तैयार हैं ? मैं तो तैयार ही था। बिना एक क्षण रुके मैने कहा-हां, हां, अब प्राणों को छोड़कर मेरे पास और रह ही क्या गया है ? यह भी जिसकी धरोहर हैं, उसे जितनी जल्दी सौंप दिए जाएं उतना ही अच्छा । इस शरीर को इन प्राणों का भार अब सह्य नहीं है। यह गुलामी, यह काला जीवन, हमारा, हम समस्त भारतवासियों का, कैसा है, समझते हो ? जैसे, एक भेड़ के बच्चे का उस वाड़े के भीतर जिसके फाटक पर शिकारी कुत्तों का पहरा लग रहा है । इस पहरे के भीतर राजा रहा तो क्या, प्रजा रहा तो क्या, जीवित रहा तो क्या और मर
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