जीवन्मुल २२६ थी । मातृभूमि का उद्धार कैसे किया जाए, यह मैंने न कभी सोदा, न समझा. न किसीने मुझे बताया ही। मैं मातृभूमि का उद्धार करूंगा, यह मैं चिल्लाकर कहता । पर किस तरह, यह नहीं जानता था और इसीलिए मैं अव तक समय- समय पर चिल्ल-पुकार करने के सिवा और कुछ कार्य इस विषय मे कर भी नहीं सका। मैंने समझा, यही यथेष्ट है। इसे करने में धन भी मिला और यश भी। रोज़गार-धन्धे को ढूढ़ने की दिक्कत भी न उठानी पड़ी, यही चिल्ल-पुकार करना मेरा व्यवसाय हो गया ! मैं अब जिला और लेखनी दोनों से यही चिल्लाया करता । निदान, देश पर मरने वालों की फेहरिस्त में मेरा नाम दूर ही से चम- कने लगा। मेरी स्त्री हंसती थी। वह मुझे जीवित रखना चाहती थी, मारना नहीं। मैं कह दिया करता यह तो कहने की बातें हैं। मरने का ऐसा यहां कौन सा प्रसंग है ? बस, यही उसके हास्य का विषय था। शिशु कुमार की बात कैसे भूली जाए ? हंसने में चार चांद तो वही लगाता था। पर मैने जो कुछ समझा वह मेरी जड़ता थी। देश का अस्तित्व एक कटोर और वास्तविक अस्तित्व था। उसकी परिस्थिति ऐसी थी कि करोड़ों नरनारी मनुष्यत्व से गिरकर पशु की तरह जी रहे थे। संसार को महाजातियां जहां परस्पर स्पर्धा करती हुई जीवन-पथ पर बढ़ रही थी, वहां मेरा देश और मेरे देश के करोड़ों नर-नारी केवल यह समस्या हल करने में असमर्थ थे कि कैसे अपने खण्डित, तिरस्कृत, अवशिष्ट जीवन को खतम किया जाए ? देश-भक्त मित्र मेरे पास धीरे-धीरे जुटने लगे । उन्होंने देश को सुलगती हुई आग का मुझे, दिग्दर्शन कराया । मैंने भूख और अपमान की आग में जलते और छटपटाते देश के स्त्री-बच्चों को देखा। वहां करोड़ों विधवाएं, करोड़ों मंगते, करोड़ों भूखे-नंगे, करोड़ों कुपद-मूर्ख और करोड़ों ही अकाल में काल-पास बनते हुए अबोध शिशु थे। मेरा कलेजा थर्रा गया । मैं सोचने लगा, जो वात केवल में कहानी-कल्पना समझता था, वह सच्ची है, और यदि मुझमें सच्ची गैरत थी, तो मुझे सचमुच मरना ही चाहिए था। मैं भयभीत हो गया। मैं कह चुका था कि मैं मरने से पीछे हटने वाला नहीं हूं। अब क्या करता? मैं बिलकुल पशु तो नहीं, वेगैरत भी नहीं, परन्तु मैं मरने को तैयार नहीं था। फिर भी मैं जबान लोटा न सका, मेरी वारधारा और लेखनी वैसी ही चलती रही। बास्तविकता का ज्यों-ज्यों दिग्दर्शन मुझे हुआ, वह उतनी ही अधिक मर्म-स्पर्शिनी हो गई । बोलना और
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