जीवन्मृत यह कहानी अब से कोई पच्चीस वर्ष पूर्व लिखी गई थी। कहानी बहुत वजनी है । इसमें एक अत्यन्त खतरनाक भेद छिपा हुआ है जिसे उस समय तोन व्यक्त जानते थे और अब केवल एक व्यक्ति ही उसका जानने वाला जीवित है । इम भेद का सम्बन्ध भारत के एक बहुत भारी असफल विप्लव से है। कहानी में कुछ उलझनें थीं, कुछ ऐसी बातें थी जो लिखी नहीं आ सकती थीं, छोडी भी नहीं जा सकती थी । इन उलकनों के कारण ही प्रतिदिन पचास पृष्ठ लिखने की सामर्थ्य रखने वाले लेखक को यह कहानी पूर्ण करने में नौ माम लगे थे। फिर भी कहानी चांद में छपते ही चांद की दो हजार की जमानत जब्त हो गई थी। कहानी को पढ़कर तत्कालीन लाहौर हाईकोर्ट के प्रसिद्ध कामिल (बाद में जस्टिस और फिर करटोडियन-जनरल) श्री अछरूराम ने आश्चर्यचकित होकर ४ ठों के पत्र में लेखक को लिया था कि क्या वास्तव में कल्पना मत्य की ऐसी हूबहू तस्वीर खीच स्वाती है ? कहानी-नायक के श्री अछरूराम बाल- सहचर रहे हैं। उस व्यक्ति के चरित्र के वे प्रत्यक्ष द्रष्टा है । कहानी में कुछ टेक्नीकल विचित्रताएं भी है । पात्रों के नाम गायब है, कथानक नहीं है केवल उसका श्रादि-अन्त है । कहानी की गति अतिशय गम्भीर है । वयं प्रच्छन्न हैं, वे साधारण पाठक की समझ से परे हैं। मानवीय ऐपणाओं और मनोविकारों को मूर्त वारने में कलाकार ने परिश्रम की पराकाष्ठा कर दी है । कहानी उच्चतम मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है। , पन्द्रह वर्ष का लम्बा काल एक भयानक दुःस्वप्न की तरह व्यतीत हो एक क्षण, एक-एक श्वास, जीवन की एक-एक घड़ी, हजारों बिच्छुन दिना में तड़प-तड़पकर व्यतीत हुई है। वह कल्पना और मानवीय वि से परे का दुःख न कहना, स्मरण न करना ही अच्छा है। मानो मैंने । पवित्र व्रत लिया था, जो एक प्रकृत योद्धा को सजने योग्य था, चरम कोटि के त्याग, साहस, सहिष्णुता, वीरता और प्रतिभा एव श्रो श्यकता थी। अपनी शक्ति और व्यक्तित्व पर बिना ही विचार किए मै
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