लम्बग्रीव २२५ और परिजन ।' 'साधु, देवराज साधु; तो तुम गांधी को लेकर देवाधिदेव की सेवा में जाओ। नाज अपराह्न में मैं उनकी आत्मा को दिव्य प्रकाश दूगी।' देवराज ने महामाया को प्रणाम किया और मर्त्यलोक को प्रस्थान किया। उसी दिन, अपराह्न में नई दिल्ली में विरला-भवन के मुक्त उद्यान में जब शत-महत जन भावाल-वृद्ध श्रद्धा अांचल में भरे, विनयावनत तपोदग्ध द्वितीया की क्षीण चन्द्रकला की भांति उस जीवित सत्त्व का अभिनन्दन कर रहे थे-जो उनके बीच हास्य की ज्योत्स्ना बखेरता हुआ हिम-धवल पीठ की ओर देव-वन्दना के लिए जा रहा था-तीन बार ज्योति-किरण फटी और तीन ही बार महानाद हुआ । उस महानाद में एक स्वरघोष भाग्यशालियों ने सुना-हे राम ! महामाया ने माया विस्तार की और नश्व-अविनश्वर का हवात् विच्छेद हो गया, कोटि-कोटि मर्य प्राणी विमूढ़ हो आकुल हो उठे। मर्त्य लोक नयन-नीर से प्रक्षालित हुा । महामाया के प्रसाद से गांधी हिमकूट पर कैलाश के हीरक द्वार पर देवराज इन्द्र के साथ जा पहुंचे । हीरक द्वार खुल गया, कुमार कार्तिक आनन्द से नृत्य करके नाचने लगे। कैलाश उज्ज्वल आभा से पालोकित दिव्य ज्योति से आपूरित हो गया । कैलाशी ने शुभ दृष्टि डाली, कहा-~-कौन है यह हिम-धवल शुभ्रकेशी ?' 'गांधी है देव । देवाधिदेव मुस्करा उठे, आप ही आप उनका तृतीय नेत्र निमीलित हो गया, उच्च हिमकूट पर वासन्ती वायु बहने लगी, विविधवर्ण पुष्प खिल गए, मकरन्द- लोभी भ्रमर गूंजने लगे, कोयल कूकने लगी, मलय-मारुत का सुखस्पर्श पा कैलाशी श्रानन्द-विभोर हो गए। बादलों को छिन्न-भिन्न करती हुई उमा रल- शृगार किए प्रा उपस्थित हुई। कैलाशी ने धीरे से त्रिशूल नीचे रख दिया । डमरू अपने स्थान पर अवस्थित हुमा । शुद्ध शिव-रूप होकर चूर्जटि ने कहा- 'हे कालपुरुष, तू जयी हो। आ मेरे शीर्षस्थान पर आसीन रह, और वहीं से अनन्त विश्व पर जब तक भूलोक में काल का प्रायु-दण्ड है, तू ही चन्द्रकला के स्थान पर शीतल स्निग्व-शुभ्र-शिव ज्योत्स्ना की मर्त्य प्राणियों पर वर्षा करता रह मयं प्राणियों पर वर्षा करता रह 10
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