लम्बग्रीव २२१ इन्ही के साथ, अफोका का जंगल चेहरों और सिर पर उगाए, वीर का बाना धारण किए बहुत लोग कोमल अन्तस्तल' का रतो-राई बहिष्कार कर कड़ाह-प्रसाद और झटके का देखटके आस्वाद ले रहे थे। हठात् कैलाशी ने तृतीय नेत्र खोल दिया । सहस्र उल्कापात का वचनाद विश्व पर व्याप्त हो गया। अग्नि-स्फुलिंग की एक ज्योतिष्मती धारा हिमकूट से सीधी अनारकली पर आ पड़ी। और, देखते ही देखते अनारकली भस्म होने लगी। लाहौर में भगदड़ मच गई । शताब्दियों से सुप्त और चिरदासता में मग्न विलास-लिप्सा और उसके साधन धांय-वांय जलने लगे। नन्दी, शृंगी, भृङ्गी, भुचुण्डी, शिलिमुख, सूचीमुख, विकरालाक्ष, लम्बकर्ण, असितवक्ष आदि रौद्रगण दौड़ पड़े। गली-गली, कूचो-कूषों में उन्होंने मोटे, तोंदल, निकम्मे, लोलुप, कायर जनों को मारकर गिराना प्रारम्भ कर दिया, रौद्ध नेत्र से विस्फारित अग्निशिखा लाहौर को घेरकर चारों ओर से भस्म करती ही रही। उसी अग्नि-समुद्र में घिर-घिरकर भागते-दौड़ते, हाय-हाय करते भद्र-अभद्र सब पटापट मरने लगे। विलास की लिप्सा ने वासना को घसीटकर साथ ले लिया और बांट-छांटकर बिलास-पुत्तलिकाओं का अपहरण किया । देव, दैत्य, दानव भी पिल पड़े। भोग और भोग के साधन वे बटोरने लगे। इस कापेल में शत- सहस्र पवित्र कुमारिकाएं, निर्दोष पंचनद की पुत्रियां लांछित हुई, नग्न की गई, और दूषित हुईं। बहुतों ने जान दे दी, बहुतों ने प्रात्मार्पण किया। बहुत जूझ मरी, बहुतों का क्रूर घात हुआ, वहुत बद्ध हुई, बहुतों ने अखाद्य भक्षण किया। सम्पूर्ण पंचनद पर रुद्र का तृतीय नेत्र धूम गया। दाहक ज्वाला की परिधि बना- कर हरी-भरी पंचनद-भूमि, नगर, गांव, बस्ती, जनपद, जन, सब भस्म होने लगे। मृत्यु और मृत्यु से भी कठिन यातनाओं, यन्त्रगानों के अवर्णनीय नारकीय अभिनय हुए महानिष्क्रमण प्रारम्भ हुआ। लक्ष-लक्ष नर-समूह, घर-द्वार, खेत-सम्पत्ति छोड़ बैघर बने, पत्नी-पुत्रों से हाथ धोए, राह के भिखारी बने, बहिष्कृत हुए। शताब्दियों से परिचित घर-द्वार, खेल-खलिहान वहीं रहे, भन्न प्राण और बर्बर
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