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अम्बपालिका
१९
 


और औदार्य तथा प्रतिभा में अदम्य तेज प्रकट हो रहा है । सम्राट् आधे लेटे हुए कुछ मन्त्रणा कर रहे है । एक कणिक नीचे बैठा उनके आदेशानुसार लिखता जाता है। एक दण्डधर ने आगे बढ़कर पुकारकर कहा-महानायक युवराज भट्टारकपादीय गोपालदेव तोरण पर उपस्थित हैं । सम्राट् ने चौंककर उधर देखा और भीतर बुलाने का संकेत किया। साथ ही कणिक और मन्त्री को विदा किया ।

गोपालदेव ने तलवार म्यान से खींच शीश से लगाई और फिर विनम्र निवे- दन किया-महाराजाधिराज की आज्ञानुसार सब व्यवस्था ठीक है । देवश्री पधा- रने का कष्ट करें । सम्राट् के नेत्रों मे उत्फुल्लता उत्पन्न हुई। वे उठकर वस्त्र पहनने के लिए पट-मण्डप में घुस गए।

वैशाली के राजपथ जनशून्य थे, दो प्रहर रात्रि जा चुकी थी, युद्ध के आतंक ने नगर के उल्लास को मूर्छित कर दिया था । कहीं-कहीं प्रहरी खड़े उस अन्ध- कारमयी रात्रि में भयानक भूत-से प्रतीत होते थे। धीरे-धीरे दो मनुष्य-मूर्तिया अन्धकार का भेदन करती हुई वैशाली के गुप्त द्वार के निकट पहुंची। एक ने द्वार पर आघात किया, भीतर प्रश्न हुआ-संकेत ?

मनुष्य-मूर्ति ने कहा-अभिनय !

हल्की चीत्कार करके द्वार खुल गया। दोनों मूर्तियां भीतर घुसकर राजपथ छोड़, अन्धेरी गलियों में अट्टालिकाओं की परछाई में छिपती-छिपती आगे बढ़ने लगी। एक स्थान पर प्रहरी ने बाधा देकर पूछा-कौन ? एक व्यक्ति ने कहा-आगे बढ़कर देखो । प्रहरी निकट आया। हठात् दूसरे व्यक्ति ने उसका सिर धड़ से जुदा कर दिया। दोनों फिर आगे बढ़े। अम्बपालिका के द्वार पर अन्ततः उनकी यात्रा समाप्त हुई। द्वार पर एक प्रतिहार मानो उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। संकेत करते ही उसने द्वार खोल दिया और आगन्तुकगण को भीतर लेकर द्वार बन्द कर लिया।

आज इस विशाल राजमहल सदृश भवन में सन्नाटा था। न रंग-बिरंगी रोशनी, न फव्वारे, न दास-दासी गणों की दौड़-धूप । दोनों व्यक्ति चुपचाप प्रति- हार के साथ जा रहे थे। सातवें अलिन्द को पार करने पर देखा, एक और मूर्ति एक खम्भे के सहारे खडी है। उसने आगे बढ़कर कहा-इधर से पधारिए