लम्वग्रीव २१६ , घण्टाघर के कलङ्कित कलेवर पर विद्युत् दीपावलियां रंग-बिरंगी आभा बिखेर रही थीं। चांदनी चौक जगमगा रहा था और दिल्ली के छल-छवी ने स्त्रैण नर 'हा-हा-हू-हू' करते, कचालू के पने चाटते, पान कचरते, भीड़ में भरी यौवन-मदमाती, सरसपाटे की शौकीन लेडियों और मिसों को, जानते, अनजानते दवोचते, धूरते, धर्मक्के देते, ठठोली और चुहल करते इवर से उपर गर्वभरी चाल से प्रा-जा रहे थे। मानो इन्होंने अपने रक्त-जीवन और शौर्य के मूल्य पर यह तथाकथित स्वातन्त्र्य-लाभ किया है । सबने देखा, सबने सोचा, यही क्या कैलाशी के क्षोभ का विषय है ? परन्तु कैलाशी की दृष्टि सुदूर सूने मरुस्थल में अलक्ष, कृष्ण, चल-चञ्चल पिण्ड पर केन्द्रित थी। सभी का ध्यान दिल्ली के रंगीन दृश्य से हटकर वही पहुच गया । बहुत ध्यान करने से अब सबने देखा-उस शून्य काली रात से श्रापूर्यमाण रेगिस्तान में एक लम्बग्रीव, अशुभ दर्शन, विगलितयौवन किन्तु भद्र-वसन नर-जन्तु ऊंट पर बैठा, हिचकोले खाता, अपनी कमजोर आंखो से, चश्मे की सहायता से, चेष्टा करके देखता मार्गहीन मार्ग पर दौड़ा जा रहा है और कैलाशी की वक्र दृष्टि उसी भाग्यहीन पर केन्द्रित है। उनकी भृकुटी मे बलि-रेखा स्पष्ट होती जा रही है, और नासिका-रन्त्र फूल रहे हैं । श्वास वेग से आ रहा है, त्रिशूल का हाथ ऊंचा उठता ही जा रहा है, डमरू का वचनाद तीव्रतम होता जा रहा है । उमा ने शकित, भीत होकर कहा-अरे ! कहीं त्रिशुली तृतीय नेत्र तो नहीं खोल रहे हैं ? प्रलय हो जाएगा, असमय ही में विश्व भस्म हो जाएगा, असमय ही में- गण, गणपति सव विचलित हुए। वे निरुपाय उमा का मुंह ताकने लगे। उन्होंने कातर कण्ठ से कहा--मातः ! कैलाशी के अमर्ष का निवारण करो, उन्हे शिव रूप में अवस्थित करो! उमा ने शुभ्र स्निग्ध हाथ कैलाशी के कंवे पर रखकर कहा—कौन है वह अधम मानुष, देव ? 'लम्बग्रीव ।' 'क्या किया है उस पातकी ने ? एक नगण्य, जरा-मृत्युपाश-ग्रसित मानुष पर देवाधिदेव का ऐसा रोष क्यों?
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