लम्बग्रीव इस कहानी में कलाकार की आहत आत्मा असह्य वेदना से चीत्कार कर रही है। उन चीत्कार से देव-दैत्य तक विचलित हो गए हैं । कलाकार, ओ निन्य ही भूत-दया, प्राणियों के सुख और जीवन के प्रानन्द के स्वप्न देखता रहता है, जब महामहानरमेय का द्रष्टा बना तो फिर उसकी वेदना की सीमा क्या होगी? शायद ही विश्व के किसी कलाकार ने भारत की विभाजन-विभीपिका पर ऐसा हाहाकार किया होगा। कहानी के टेकनिक का जहा तक सम्बन्ध है, लेखक को जातिगत विद्वप से अछूता रहने में अद्भुत सफलता प्राप्त हुई है । कहानी में विशुद्ध मानव-प्रेम और भूत-दया है । रत्तीभर भी प्रोपेगण्डा नहीं है, व्यंग्य और श्लेष के चमत्कार के तो कहने ही क्या हैं। चन्द्रकला कहानी का प्राण है, जो शिव का शिरोभूषण और विभाजन के पुरोहित का राष्ट्रचिह्न है । कहानी-लेखक की सर्वोत्कृष्ट कहानियों में यह अन्यतम है। उत्तुङ्ग हिमकूट पर धूर्जटि क्रोध से फूत्कार कर उठे। उनका हिम-धवल दिव्य देह थरथरा गया। अभी-अभी उनकी समाधि भंग हुई थी और उसी समय उन्हें प्रतीत हुआ कि उनके जटाजूट से कोई चन्द्रकला को चुरा ले गया। चन्द्रकला की रजत-प्रभा से हीन उनकी पाण्डुर जटा धूमिल और मलिन हो रही थी, जाह्नवी की शुभ्र रेखा सूख गई थी। उनके क्रोध और चलभाव से उनके मृदु अङ्ग के सुखस्पर्श से सुप्त सर्प जागरित हो इधर-उधर सरकने लगे। कमर में लिपटा हुश्रा व्याघ्रचर्म स्खलित होकर नीचे खसक गया। जिस हिम-शिला पर कैलाशी शताब्दियों में ध्यानसुप्त, स्थिर, समाविलीन तुरीयावस्था में उपस्थित थे, वह पिघलकर बहने लगी। उन्होंने एक बार अच्छी तरह निर्णय करने के लिए जटा को झाड़ा, यहां चन्द्रकला नहीं थी। उसे कोई बुरा ले गया था ! उन्होंने झांककर मर्त्यलोक की ओर देखा-~- महाराज्यों की राजधानी दिल्ली अपने भाग्य पर इतरा रही थी, तब से अब तक इस महामन्दोदरी पुंश्चली ने न जाने कितने नर-नाहरों का रक्तपान
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