पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२१९

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२१० समस्या कहानियां 'तव मैं क्या करूं? 'गांव के किसी इज्जतदार गरीव ठाकुर से मेरा ब्याह करा दीजिए।' इज्जतदार ठाकुर क्यों ब्याह करने को राजी होगा।' 'आप कहेगे तो होगा। मेरा सहारा हो जाएगा? मेरा कलंक ढका रह जाएगा। और मैं अपनी सेवा से उसे प्रसन्न कर लूंगी।' अब आप मेरे दिल की बात भी सुन लीजिए। मेरी अांखों में अब मेरे पुत्र का निर्मल हास्य खेल रहा था । सुपमा प्रसव के बाद मनुरी से लौटने पर अधिक आकर्षक हो गई थी। मैं अपनी लम्पट वृत्ति पर खीझ रहा था । न जाने मुझे क्या हो गया था उस समय । यही मैं सोचता रहता था। और अब वह आग तो सर्वथा बुझ चुकी थी। पर उसले जलकर जो फफोला पड गया था, वह इतना भारी जंजाल हो उठेगा--यह मैने कभी न सोचा था। और अब मुझे इस औरत मे कोई दिलचस्पी भी न थी । इससे सब भांति पीछा छुडाने और भविष्य मे अपने दाम्पत्य का पूरा प्रानन्द लेने को मैं वेचैन था । कुछ रुपए-पैसे की बात होती तो मैं उसे दे देता। पर उसका ब्याह रचाना--यह तो एक नया सिर-दर्द था । अब भला मैं किससे कहूं ? कैसे कहूं ? सुनकर कोई क्या समझेगा, क्या कहेगा ? इन्हीं सब बातों पर मैं देर तक विचार करता रहा। कुछ देर बाद मैंने धीमे स्वर मे कहा-क्या तुमने किसी आदमी को पसन्द किया है ? 'नहीं, पसन्द-नापसन्द की वात ही नहीं है, मुझे पाप काना, अन्या, वहरा, कोढ़ी, अपाहिज, दूढ़ा-किसीके पल्ले बांध दीजिए। उन न होगा। बस, मेरी लाज ढकी रह जाय । मेरे पिता का कुल न कलकित हो।' उस समय मैं उस एकान्त में उससे अधिक बात करने को सर्वथा अनि- च्छुक था। मैने केवल टालने की दृष्टि से कह दिया-मनिषा यादव (वार्ता)-अच्छा देखूगा । मैं चलने लगा। उसने कहा-जरा रकिए । एक बात और है । 'क्या? 'वह कल गढ़ी में आकर सबके सामने कहूंगी । यहां कहना ठीक नहीं है।' 'अच्छा' कहकर मैं चल दिया। दूसरे दिन पहर दिन चढ़े वह गढ़ी में आई। पाकर सीधी कचहरी में नाकर दीवानजी के पास जा खड़ी हुई। उसने कहा-~-छोटे सरकार से अर्ज करले