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मेरी आत्मकहानी
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होता है; अथवा उस ग्राहक भाषा की प्रकृति के अनुसार उसका व्याकरण-संबंधी रूप स्थिर होता है।

इस बात का उद्योग करना कि हमारी देवनागरी-लिपि संसारव्यापिनी होकर अंतर्राष्ट्रीय प्रयोग में आवेगी, विडंबना-मात्र है और इस मृगमरीचिका के पीछे दौड़ कर कहीं हम अपनी चिर-अर्जित संपत्ति को भी नष्ट-भ्रष्ट न कर दें, इस बात की बड़ी आशंका है।


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हस्तलिखित हिंदी-पुस्तकों की खोज

सन् १८६८ ई० में भारत-सरकार ने लाहौरनिवासी पंडित राधाकृष्ण के प्रस्ताव को स्वीकृत कर भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न प्रांतो में हस्तलिखित संस्कृत-पुस्तकों की खोज का काम आरंभ करना निश्चित किया और इस निश्चय के अनुसार अब तक संस्कृतपुस्तकों की खोज का काम सरकार की ओर से बंगाल की रायल एशियाटिक सुसाइटी, बंबई और मदरास की गवर्मेंटो तथा अन्य अनेक संस्थाओं और विद्वानों द्वारा निरंतर होता आ रहा है। इस खोज का जो परिणाम आज तक हुआ है और इससे भारतवर्ष की जिन-जिन साहित्यिक तथा ऐतिहासिक बातों का पता चला है, वे पंडित राधाकृष्ण की बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता तथा भारत-गवर्मेंट की कार्यतत्परता और विद्या प्रेम के प्रत्यक्ष और ज्वलंत प्रमाण हैं। संस्कृत-पुस्तको की खोज-संबंधी डाक्टर कीलहाने, बूलर, पीटर्सन, भाडारकर और वर्नेल आदि की रिपोर्टों के आधार पर डाक्टर