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मेरी आत्मकहानी
 

समेत तोड गिराए, सर्प थिलो से बाहर निकले, महानदियों ने मर्यादा भग कर दी और स्वतंत्र स्त्रीयों की भाँति उमड चलीं।’

“इसमे भी सस्कृत के शब्द हैं पर वे इतने सामान्य और सरल हैं कि उनका प्रयोग अप्राह्म नहीं। ऐसी ही भाषा हम लोगों का आदर्श होनी चाहिए। भाषा के दो अग हैं― साहित्य और दूसरा व्यवहार। साहित्य की भाषा सर्वदा उच्च होनी चाहिए इसका ढग सर्वया प्रथकर्ता के अधीन है। वह अपनी रुचि तया विषय के अनुसार उसे हिप्ट या सरल लिख सकता है। संस्कृत या विदेशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग भी उसी की इच्छा पर निर्मर है। इसमें बाधा डालकर प्रयकर्त्ता की बुद्धि के बेग को रोक कर उसे सीमावद्व कर देने का अधिकार क्सिी की नहीं है। परंतु, व्यवहार-संबधी लेखों में अवश्य वही भाषा रहनी चाहिए जो सबकी समझ में आ सके उसमें किसी भाषा के प्रचलित शब्द प्रयुक्त किए जा सक्ते हैं। अदालत के सब काम, नित्य की व्यवहार-संबधी लिखा-पढ़ी, सर्वसाधारण में वितरण करने योग्य लेख या पुस्तकें, समाचार-पत्रादि जितने विषय कि सर्वसाधारण के साथ संबंध रखते हैं, उनमें ऐसी सरल बोल-चाल की भाषा आनी चाहिए जो सबकी समझ में आ जाय, उसके लिये उच्च हिंदी होनी आवश्यक नहीं है। वह ऐसी होनी चाहिए जिसे ऐसा मनुष्य भी जो केवल नागरी अक्षर पढ़ सकता हो समझ ले। पाठशालाओं में पढ़ने का क्रम ऐसा होना चाहिए जिसमें सब प्रकार की भाषा समझने की योग्यता बालक को हो जाय। प्रारंमिक पुस्तके अत्यंत