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मेरी आत्मकहानी
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पर हुई। अब यदि आवश्यकता पड़ने पर हिंदी अपनी माता से सहायता न ले तो और कहाँ से ले सकती है। अतएव यह उद्योग कि हिंदी से सस्कृत के वे सब शब्द निकाल दिए जायें जो हिंदीवत्न हीं हो गए हैं, सर्वथा निष्फल और असभव है। संस्कृत के शब्दो से अवश्यमेव सहायता ली जायगी, पर इस बात पर अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि जहाँ शुद्ध हिंदी के शब्द से काम चल जाय और भाषा मे किसी प्रकार का दोष न आता हो, वहाँ संस्कृत के शब्दो की वृथा भरती न की जाय। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि संस्कृत के शब्दो का ही अधिक प्रयोग हो। विदेशी भाषा के सरल शब्द के स्थान पर भी यदि संस्कृत के एक कठिन शब्द से काम चल सके तो सस्कृत-शब्द ही काम में लाया जाय, विदेशी भाषा का शब्द निकाल दिया जाय। इन महाशयो के मत से भाषा ऐसी कठिन हो जायगी कि उसका समझना सब लोगों का काम न होगा। हिंदी भाषा मे विशेष गुण यह है कि वह सरलता और सुगमता से समझ में आती है और इसी लिये वह भारतवासी मात्र की मातृभाषा मानी जाती है। संस्कृत-शब्दो के अधिक प्रचार से यह गुण जाता रहेगा। हाँ, यह बात बहुत आवश्यक है कि भाषा सव श्रेणी के लोगों के पढ़ने योग्य हो। पर क्या सस्कृत के कठिन शब्दो के बिना यह नही हो सकता?

“विदेशी भाषा के शब्दो के विषय मे इतना कहना और रह गया है कि जिन शब्दो का भाषा में प्रचार हो गया है उनके छोड़ने या निकालने का उद्योग अब निष्फल, निष्पयोजन और असमव है।