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मेरी आत्मकहानी
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गवर्नमेंट तथा बंगाल की एशियाटिक सुमाइटी से प्रार्थना की कि संस्कृत-हस्तलिखित पुस्तकों के साथ हिंदी-पुस्तको की भी खोज की जाय। संयुक्त-प्रदेश की गवर्नमेंट ने बनारस के संस्कृत-कालेज में रक्षित हस्तलिखित हिंदी-पुस्तको की एक सूची बनवाकर भेजी। भारत और पंजाब गवर्नमेंटो ने कुछ नहीं किया। बंगाल की एशियाटिक सुसाइटी ने दो वर्ष तक यह काम कराया। पीछे से उसे बंद कर दिया।

दुसरे वर्ष (१८९४-९५) के प्रारंभ में कायस्थ कांफ्रेंस का वार्षिक अधिवेशन काशी में हुआ था। सभा ने यह समझा कि कायस्थ जाति के लोग अधिकतर दफ्तरों में काम करते हैं। वे यदि हिंदी को अपना लें तो उसके प्रचार में विशेष सहायता पहुँच सकती है। लखनऊ के बाबू श्रीराम इस अधिवेशन के सभापति हुए थे। वे संस्कृत के ज्ञाता थे। इससे और भी अधिक आशा हुई। एक डेपुटेशन भेजा गया और हिंदी को अपनाने की प्रार्थना की गई। कांफ्रेंस ने निश्चय भी इस प्रार्थना के समर्थन में किया पर परिणाम कुछ भी न निकला। यदि कायस्थ और काश्मीरी लोग हिंदी के पक्ष में हो जायँ, तो हिंदी के प्रचार में बहुत कुछ सहायता पहुॅच सकती है। पर जहाॅ काश्मीरी पडितो मे ऐसे व्यक्ति भी हैं जो उर्दू को अपनी ‘मादरी जवान’ मानने में अपना अहोभाग्य समझते हैं, वहाँ क्या आशा की जा सकती है। वहाँ, यदि आशा है तो कायस्थो और काश्मीरियों के स्त्री-समाज से है जो हिंदी को आग्रह से ग्रहण कर रहा है और उसके पठन-पाठन में दत्त-चित्त है।