हिंदी-शब्दसागर की प्रस्तावना के स्वरूप में पंडित रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी-साहित्य का इतिहास लिखा है। यह पीछे से पुस्तकाकार छपा और इसके लिये उन्हे हजार-बारह सौ रुपया पुरस्कार दिया गया। गत वर्ष सन् (१९३९) शुक्ल जी ने उसका संशोधित और परीवर्धित संस्करण तैयार किया जो अभी तक पूर्णतया छपकर प्रकाशित नहीं हुआ। इस नवीन संस्करण के संबंध में सभा ने निश्चय किया कि इस पर शुक्ल जी को २०) सैकड़ा रायल्टी दी जाय । यहाँ इतना और वतला देना आवश्यक है कि यह इतिहास सूर्यकुमारी पुस्तक-माला में प्रकाशित हुआ है। इस पुस्तकमाला को प्रकाशित करने के लिये शाहपुराधीश महाराज उम्मेदसिंह जी ने सभा का लगभग २० हजार रुपया दान दिया है। अब इस पुस्तकमाला के कुछ ग्रंथो को इंडियन प्रेस प्रकाशित करता और सभा को प्रत्येक पुस्तक की बिक्री पर २०) सैकड़ा रॉयल्टी देता है। पुस्तकमाला के प्रवध के लिये सभा के कार्यालय में जो व्यय होता है उसके लिये इस पुस्तकमाला की बिक्री से ८)[१] सैकड़ा काट लिया जाता है। इस प्रकार इस आयोजन का अर्थ यह हुआ कि २०) आय हो और २८) व्यय किया जाय। प्रश्न यह है कि इस प्रकार कार्य करना क्या एक निधि के धन का सदुपयोग करना कहा जा सकता है।
इन सब बातों का जब मुझे पता लगा तब मैंने सभापति महाशय से उनका विरोध किया। पर उनकी बात चीत से मेरी यह धारणा हुई वे कि इन प्रश्नो को व्यक्तिगत विद्वेष का रूप देकर अपने कार्य का
- ↑ *सुना है यह रकम अब १२||)सैकड़ा कर दी गयी हैं।