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मेरी आत्मकहानी
 

रूप से सपन्न करने में कोई बात उठा नहीं रखी। यह इन महाशयों के सतत उद्योग का फल है कि यह सभा आज सार्वजनिक संस्थाओं में एक ऊंचे स्थान पर विराजमान है। इन ४७ वर्षों में सभा ने हिंदी-भाषा दया देवनागरी लिपि की हित-साधना में आठ लाख से ऊपर वन इकट्ठा करके व्यय किया, पर किसी सभापति या मंत्री ने कभी सभा से किसी प्रकार का आर्थिक लाभ उठाने का उद्योग नहीं किया। सभा का मूल मंत्र उसके अधिकारी कार्यकर्ताओं की निस्वार्थ सेवा रहा है और इसी का यह फल है कि उसके कामों में इतनी अधिक सफलता प्राप्त हुई।

सभा का २९ (ग)वॉ नियम इस प्रकार है–"जो सभापद् सभा के किसी कार्य पर कुछ मासिक वेतन देकर नियत किए जायेंगे अथवा जिनका व्यापारिक संबंध सभा से हागा उन्हें अपने संबंध में वोट देने या पदाधिकारी अथवा प्रबंध समिति के सदस्य होने का अधिकार न होगा।" इस नियम का पालन अब तक होता आया। जिन सभापद् से एकमुश्त रुपया देकर कोई पुस्तक लिखवाई, अनुवादित, मशोधित या संपादित कराई जाती उन पर यह नियम नहीं लगता था, क्योंकि यह रुपया एक विशेष काम के लिये दिया जाता था। उस काम के समाप्त होते ही वह व्यापारिक संबध भी समाप्त हो जाता था। इसके साथ यह बात भी स्पष्ट है कि किनी सभापति ने किसी काम के लिये सभा से एक पैसा भी नहीं लिया। केवल दो या तीन मंत्री ऐसे हुए हैं जिन्होंने एकमुश्त रुपया लेकर सभा का साहित्यिक काम किया है।