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मेरी आत्मकहानी
 

प्राप्त हुआ। मैंने नागरीप्रचारिणी सभा तथा हिंदी-भाषा और साहित्य की उन्नति में भरसक उद्योग किया और अपनी तथा अपने कुटुंब की चिंता छोड़कर इनकी सेवा में अपना शरीर अर्पण कर दिया। भारतेंदु हरिश्चंद्र के गोलोकवास के उपरांत हिंदी बड़ी शोचनीय अवस्था में थी। उसे कोई पूछनेवाला न था। नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना, 'सरस्वती' पत्रिका के प्रकाशन तथा हिंदी साहित्य- सम्मेलन की आयोजना से हिंदी इतनी दृढ़ता से उन्नति करने लगी कि आन दिन वह प्रमुख भाषाओं में उस सिंहासन पर विराजमान है और राष्ट्रभाषा के गौरवान्वित पद को प्राप्त कर रही है। उसके साहित्य में नित्य नए-नए रत्न निकलने लगे हैं। जयशंकरप्रसाद से नाटककार, प्रेमचंद से उपन्यास-लेखक, रलाकर और श्रीधर पाठक से कवि, वालमुकुंद गुप्त और महावीरप्रसाद द्विवेदी से पत्रकार, बालकृष्ण भट्ट और पूर्णसिंह से निबंध-लेखक, तथा पार्वतीनंदन से कहानी-लेखक उसकी सेवा कर चुके हैं और बर्तमान काल में अनेक कवि, नाटककार, उपन्यास-लेखक, कहानी-लेखक, समालोचक, निबंध लेखक तथा आकर-ग्रंथ के रचयिता उसकी सेवा में तत्पर हैं। यह क्या कम सतोप और आनंद की बात है ? सच तो यह है कि हिंदी का वर्तमान रूप बड़ा चमत्कार-पूर्ण है। इसमें भावी उन्नति के बीज वर्तमान है जो समय पाकर अवश्य पल्लवित और पुष्पिद होंगे । परिवर्तन काल में जिन गुणों का सब बातो में होना स्वाभाविक है वे सभी हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में स्पष्ट देख पढते हैं और काल का धर्म भी पूर्णतया प्रतिविदित हो रहा है। इस