स्थापना की। इसके लिये उन्होंने कई वर्षों तक निरंतर उद्योग कर और अपना बहुत-मा रुपया खर्च करके तथा मित्रों से मँगनी लेकर अनेक चित्रों तथा अन्य कलात्मक वस्तुओं का संग्रह प्रस्तुत कर लिया। उनकी इच्छा थी कि इन सब वस्तुओं का प्रदर्शन सर्वसाधारण के लिये सुगम हो । इसके लिये पहले उन्होंने गुदौलिया (काशी) की चौमुहानी पर एक मकान भी १००) रुपये महीने किराये पर लिया था और उसमें सव वस्तुओं को सजाया था। राय कृष्णदास के पिता राय प्रह्लाददास का देहांत राय कृष्णदास की छोटी अवस्था में हो गया था। मैंने अनेक वेर इनके पिता के साथ इन्हें बाबू राधाकृष्णदास के स्थान पर देखा था। उसी समय मेरे मन में यह भावना उत्पन्न हुई थी कि इनकी प्रकृति कुछ अक्खड़ है। अस्तु, इनके पिता के देहावसान पर इनकी समस्त जिमीदारी कोर्ट आफ वार्ड स के नियंत्रण में आगई । जब कृष्णदास पालिग हुए तो यह सब जिमीदारी तथा कई लाख रुपया नकद इनको मिला । सिर पर अंकुश न होने से इस अवस्था में इनका कला-प्रेम इन्हें कलात्मक वस्तुओं के संग्रह में उत्तेजित करता रहा। इसमें भी इन्होंने बहुत रुपया व्यय किया। गुदौलिया पर जब इन्होंने कलाभवन खोला, वब वह बहुत दिनों तक वहाँ न रह सका । अंत में वह स्थान छोड़ना पड़ा। चित्रों को तो ये अपने घर पर उठा ले गये और पत्थर की भूतियाँ आदिहिंदू स्कूल के एक कमरे में बंद कर दी गई । सन् १९२५ में भारत कला- परिषद की रजिस्टरी कराई गई, पर कार्य व्यवस्थापूर्वक न चल सका। सन् १९२८ के अंत में अथवा सन्
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मेरी आत्मकहानी
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