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मेरी आत्मकहानी
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(१२) सन् १९३७ के जुलाई मास से, ६२ वर्ष की आयु होने पर वर्ष से अधिक काशी-विश्वविद्यालय की सेवा करके, मैंने अवसर ग्रहण किया। उसी वर्ष हिंदी-विभाग-द्वारा मेरी सांगोपांग बिदाई की गई | उस अवसर पर मुझे जो अभिनंदनपत्र दिया गया उसको मैं यहाँ इसलिये उद्धृत करता हूँ कि उसमे मेरी सेवाओ का संक्षेप में उल्लेख है और वह श्रेष्ठ साहित्यिक भाषा में लिखा गया है- "आज इस विश्वविद्यालय के छात्रगण तथा हिंदी-विभाग के अध्यापक श्रद्धा और सत्कार, स्नेह और सौमनस्य, संभ्रम और सद्भाव के दो-चार कुसुम लेकर आपकी अर्चना करने के लिये आपके सम्मुख उपस्थित हैं । इस समय हमारे हृदय जिन भावो से आदोलित हो उठे हैं, उन्हे व्यजित करने मे शब्दशक्ति कुठित सी दिखाई देती है। ऐसी अवस्था में आपके उन गुणो की चर्चा, जो समय-समय पर हमें पुलकित और प्रमोदित, उद्यत और उत्साहित करते रहे हैं, यदि हमसे पूर्ण रूप से न हो सके तो कोई आश्चर्य नहीं। "हिंदी-भाषा और साहित्य के वर्तमान विकास की इस परितोषक अवस्था के साथ आपकी तपस्या, आपकी साधना, आपकी विद्वत्ता,आपकी दक्षता और आपकी तत्परता का ऐसा अखंड संबंध स्थापित हो गया है कि इस युग की उत्कृष्ट साहित्यरचना का इतिहास आपकी उद्यमशीलता का इतिहास है। आपने ग्रंथो की ही नहीं ग्रंथकारो की रचना की है। आपने धूल मे लोटते और चकी मे पिसते यथार्थ रत्नों को राजमुकुट मे स्थान दिलाया है। आपके