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मेरी आत्मकहानी
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दुष्परिणाम पर पश्चाताप करने के अतिरिक्त और कुछ बाकी न रह जायगा। अस्तु, इस स्थिति को समझकर मैं अकाडमी से उदासीन हो गया। मैं नौ वर्षों तक इसका सभासद् रहा। मैं १९३३ मे ही इससे अलग हो जाना चाहता था पर उस वर्ष मेरे सभासद् बने रहने के लिये गवमेंट की ओर से बहुत जोर दिया गया । सन् १९३६ के नए चुनाव से मेरे प्राण बचे। यह संस्था १२ वर्षों की हो चुकी और इसे गवमेंट से ३,२५,०००) की सहायता अब तक प्राप्त हुई है। इस धन से इसने ७९ ग्रथों का प्रकाशन किया और १७ ग्रंथ छपने को पड़े हैं। कितना अपव्यय हुआ है यह इसी से अनुमान किया जा सकता है। इतने धन से वो नागरीप्रचारिणी सभा जैसी संस्था कई हजार ग्रंथ प्रकाशित करती । मेरा अपना विचार है कि इस संस्था की अंत्येष्टि क्रिया जितनी शीघ्र हो जाय उतना ही हिंदी और उर्दू का हित होगा। यदि गवमेंट वास्तव में हिंदी और उर्दू के साहित्य की श्रीवृद्धि करना चाहती है तो उसे इस २५,०००) वार्षिक मे से २०,०००)उन हिंदी और उर्दू की चुनी हुई साहित्यिक संस्थाओं को उनके अपने व्यय के अनुपात में दान देना चाहिए और ५,०००) अपने हाथ मे रखना चाहिए जिससे हिंदी और उर्दू के उत्तमोत्तम ग्रंथो के रचयिताओ को प्रतिवर्ष पुरस्कृत किया जा सके। इस प्रकार अपव्यय नहीं होने पायगा और कार्य भी अधिक होगा। अकाडमी ने मेरे दो ग्रंथो का प्रकाशन किया, एक 'गोस्वामी तुलसीदास का जीवन-चरित्र' और दूसरा 'सतसई समक' ।