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मेरी आत्मकहानी
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इंजीनियरिंग विभाग में काम करते थे। वहाँ से पेंशन लेकर वे काशी में आ बसे। मुझे इनके दर्शनों का सौभाग्य बराबर कई वर्षों तक होता रहा। अस्तु, जब जितेंद्रनाथ बसु (उपनाम मोटरू बाबू) से मेरा परिचय हुआ तब परस्पर स्नेह बढ़ता ही गया। हम लोग क्लास में प्रायः एक ही बेंच पर बैठते थे। क्रमशः गाढ़ी मित्रता हो गई। जब सन् १८९२ में मैंने इंट्रेस पास कर लिया और साथ ही बाबू सीताराम शाह और बाबू जितेंद्रनाथ बसु भी उत्तीर्ण हुए, तब बाबू जितेन्द्रनाथ वसु ने एक दिन यह प्रस्ताव किया कि यदि तुम हमारे घर पर आ जाया करो तो हम लोग साथ ही साथ पढ़ें। मैंने पिता की आज्ञा लेकर इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। पढ़ाई का यह क्रम चार वर्षों तक चलता रहा। जो अँगरेजी की पुस्तक आगे पढ़ाई जानेवाली होती थी उसे हम लोग पहले से बड़ी छुट्टियों (जैसे दुर्गापूजा, क्रिसमस आदि) में पढ़ लेते थे। जितेंद्रनाथ बसु के दो अध्यापक थे—एक लाजिक पढ़ाते थे और दूसरे संस्कृत। संस्कृत के अध्यापक स्वनामधन्य पंडित रामावतार पांडेय थे। ये, संस्कृत के साहित्याचार्य थे। पीछे से इन्होंने अँगरेजी में एम॰ ए॰ तक पास किया था। मैं भी इन अध्यापकों से पढ़ता था। सन् १८९४ में मैंने अपने मित्रों के साथ इंटरमिडियेट परीक्षा पास की। सन् १८९६ में बी॰ ए॰ की परीक्षा के लिये हम लोग एक साथ जाकर प्रयाग में ठहरे थे। परीक्षा आरंभ होने के एक दिन पहले मुझ पर 'रेनल कालिक' का आक्रमण हुआ। जब तक इसका आक्रमण रहता, मैं छटपटाया करता और जमीन पर इधर से उधर