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मेरी आत्मकहानी
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(३) यही मेरे चतुर्थ पुत्र का जन्म हुआ। यह एम० ए०, वी-टी० पास करके लखनऊ के रीड क्रिश्चियन कालेज में काम कर रहा है। इसका विवाह प्रयाग के बाबू भगवानदास टडन की ज्येष्टा कन्या से हुआ है।

(४) सन् १९१४ में मै गुरुकुल काॅगड़ी के आर्य-भाषा-सम्मेलन का सभापति होकर वहाॅ गया। इसके अनंतर हाथरस के एडवर्ड पुस्तकालय के वार्षिकोत्सव पर गया। वहाॅ रायबहादुर सेठ चिरंजीलाल बागला का अतिथि हुआ। उन्होने कृपाकर ५००) हिंदी-मनोरंजन पुस्तकमाला के लिये दान दिये जो उन्होंने पीछे से सभा में भेज दिये। इसी समय स्वामी सत्यदेव भी वहाँ पधारे थे। उन्हें भी सेठ जी ने दक्षिणा मे नागरी-प्रचार के लिये ५००) दिया। सन् १९१६ मे मैं जबलपुर के श्री शारदापुस्तकालय के वार्षिकोत्सव पर गया। यहाॅ पहले-पहल सेठ गोविंददास तथा डाक्टर हीरालाल से मेरा परिचय हुआ। सन् १९१८ मे मैं अलीगढ़ के प्रांतीय साहित्य-सम्मेलन का सभापति होकर वहाॅ भेजा गया। “भेजा गया” मैं इसलिये लिखता हूँ कि सम्मेलन की स्वागत-समिति ने काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा को लिखा कि अलीगढ़ उर्दू का केन्द्र है। यहाॅ के लिये किसी उपयुक्त व्यक्ति को समापति के लिये चुनकर भेज दीजिए। सभा के आग्रह पर मैं वहाँ गया। इस सम्मेलन मे जो वक्तृता मैंने दी उसकी पंडित मदनमोहन मालवीय ने प्रशसा की। मैं जब यह वक्तृता दे रहा था तब बाबू रामचन्द्र वर्म्मा लिखते जाते थे। बाबू रामचन्द्र का यह अद्भुत कौशल देखकर मुझे बड़ा सतोप तथा आनद हुआ।