मिल जाय। उन्होंने अत्यंत उदारतापूर्वक इसे स्वीकार किया और थोड़े दिनों में ही १,०००) रुपया भेज दिया जिससे हमको भारत-गवर्मेंट से भी ५,०००) मिल गया।
(४) जब कोश की समाप्ति पर उत्सव मनाने की चर्चा हो रही थी तब यह निश्चय हुआ था कि प्रत्येक जीवित संपादक को एक दुशाला, एक घड़ी और एक फाउंटेन पेन उपहार मे दी जाय जिसमे दुशाला उनके प्रति सम्मान का सूचक, घड़ी अपने समय को इस काम में लगाने की सूचक और कलम इस बात की सूचक हो कि उन्होंने इससे कितना बड़ा काम किया है। इन सपादको मे मेरा भी नाम था। एक दिन बातो-बातो में मैंने अपनी स्त्री से इस आयोजन का हाल कहा। उसने पूछा कि “क्या तुम भी दुशाला, घड़ी और कलम लोगे।” मैने उत्तर दिया “क्यो नही?” उसने प्रत्युत्तर दिया-“यह सर्वथा अनुचित है। सभा को तुम अपनी कन्या मानते हो, उसकी कोई चीज को लेना अनुचित और धर्म-विरुद्ध समझते हो, फिर ये चीजें कैसे ले सकते हो?” मैं इस तर्क से चुप हो गया और साथ ही अपनी स्त्री की धर्मभावना पर मुग्ध होकर मैंने ये चीजें लेना अस्वीकार कर दिया। इस पर यह सोचा गया कि मेरे अभिनंदन मे लेखों का एक संग्रह छापा जाय और वह मुझे भेंट किया जाय। इस पर मेरे एक मित्र ने पत्र लिखकर इसका घोर विरोध किया, अत इसको भी मैने अस्वीकार किया। तब अंत मे कोशोत्सव-स्मारक संग्रह प्रकाशित किया गया और वह मुझे अर्पित किया गया। समर्पण-पत्र अग्रलिखित प्रकार था-