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मेरी आत्मकहानी
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विचारपूर्वक कार्य करने की आवश्यकता थी। साथ ही इस बात की भी बहुत बड़ी आवश्यकता थी कि जो सामग्री एकत्र की गई है, उसका किस ढंग से उपयोग किया जाय और भिन्न-भिन्न भावो के सूचक अर्थ आदि किस प्रकार किए जायें, क्योकि अभी तक हिंदी, उर्दू, बंँगला, मराठी या गुजराती आदि किसी देशी भाषा मे आधुनिक वैज्ञानिक ढंग पर कोई शब्द-कोश प्रस्तुत नहीं हुआ था। अब तक नितने कोश बने थे, उन सबमें वह पुराना ढग काम में लाया गया थे और एक शब्द के अनेक पर्याय एकत्र करके रख दिए गए थे। किसी शब्द का ठीक-ठीक भाव बतलाने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया था। परंतु विचारवान् लोग समझ सकते है कि केवल पर्याय से ही किसी शब्द का ठीक-ठीक भाव या अभिप्राय समझ में नहीं आ सकता, और कभी-कमी तो कोई पर्याय अर्थ के संबंध में जिज्ञासु को और भी भ्रम मे डाल देता है। इसी लिए शब्द-सागर के संपादको को एक ऐसे नए क्षेत्र में काम करना पड़ा था, जिसमे अभी तक कोई काम हुआ ही नहीं था। वे प्रत्येक शब्द को लेते थे, उसकी व्युत्पत्ति ढूंढ़ते थे, और तब एक या दो वाक्यो में उसका भाव स्पष्ट करते थे, और यदि यह शब्द वस्तु-वाचक होता था, वो वस्तु का यथासाध्य पूरा-पूरा विवरण देते थे; और तब उसके कुछ उपयुक्त पर्याय देते थे। इसके उपरांत उस शब्द से प्रकट होनेवाले अन्यान्य भाव या अर्थ, उत्तरोचर विकास के क्रम से, देते थे। उन्हें इस बात का बहुत ध्यान रखना पड़ता था कि एक अर्थ का सूचक पर्याय दूसरे अर्थ के अंतर्गत न चला जाय । जहाँ आवश्यकता